मंगलवार, जुलाई 06, 2010

मुझे ही खबर नहीं

लुट गयी बस्ती मेरे हाथों, मुझे ही खबर नहीं,
मालूम चला ,जब खुद को तन्हा पाया ,उसी बाज़ार में.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

जब भी , हँसने की , तैयारी की मैंने,

इस (दुनिया के )रंग मंच पर ,
उपरवाले को ,
मेरा ही  किरदार,
क्यों भाया , 
जब भी ,
हँसने की ,
तैयारी की मैंने,
उसने,
 रोने का,
 किरदार ,
थमा दिया .

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

आज वो कान्धा छूट गया

"जिस गुलशन ने ,
खिलना सिखाया था,
हमसे ही लूट गया,
रोया करते थे,
जिस पर लग कर,
आज वो कान्धा  छूट गया."

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

सोमवार, जुलाई 05, 2010

शब्दों से भींगा हुआ पन्ना बन जाता है, साहित्य का इतिहास .

मन की भाषा को ,
जुबान मिलती है ,
पन्नों में आकर ,
कुछ भाषा ,
आँखों से खोली जाती हैं.
कुछ को,
खोलने के लिए,
 पन्नों को ,
भिंगोना होता है .
शब्दों से ,
भींगा हुआ पन्ना,
बन जाता है,
साहित्य का,
इतिहास ..

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

रविवार, जुलाई 04, 2010

कोई वादों की डोर से , बंध कर टूट जाता है.

तोड़ जाता है कोई ,
वादों की डोर को,
कोई वादों की डोर से  ,
बंध कर टूट जाता है.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

दर्द से रिश्ता (एक अनुभूति ,मेरे जीवन की)

दर्द से रिश्ता (एक अनुभूति ,मेरे जीवन की)

मैंने सुख दुःख के,
तानों ,बानो  से,
एक गुल है बनाया,
सुख को छोड़ ,
मैंने दुःख को ,
अपना बनाया.

मैंने ऐसा जाल बुना,
ना जाने क्यों ?
मैंने दुःख को चुना.

जीवन में मिठास की तलाश,
हर किसी को होती है,
जिसको पाने की चाह,
हर किसी को होती है.

मैंने भी,जीवन में,
दर्द के साथ मिठास को पाया,
फिर भी ना जाने क्यों,
मुझे दर्द ही भाया.

बड़े कम समय में दर्द ,
जीना सीखा देता  है,
हँसते हुए लोगों को,
रोना सीखा देता है.

हमने सुख के संसार में ,
रहते हुए भी ,
दर्द को महसूस किया,
इसके हर एक कसक को,
अपने अंदर महफूज किया.

दर्द के साथ जुडा हुआ,
सारा जहान है,
दर्द को भी झेल जाना ,
एक इम्तिहान है.

दर्द के साथ मेरा अब तो ,
ऐसा नाता है,
दर्द हर ख़ुशी से पहले,
मेरे चेहरे पर आ जाता है.

दर्द से जुड़ गया ,
एक रिस्ता मेरा खास है,
अब तो दर्द मेरे आगे,
मेरे पीछे, मेरे साथ है.

मैंने एक ऐसा जाल बुना,
ना जाने क्यों मैंने,
फूलों  को छोड़,
काँटों को  चुना.

मैंने ऐसा जाल बुना,
ना जाने क्यों ?
मैंने दर्द  को चुना.

मंगलवार, जून 29, 2010

गुफ्तगू से नहीं,लरजते अधर, सितम बोलते हैं,


गुफ्तगू से नहीं,लरज़ते   अधर, सितम बोलते हैं,
भरम है उन्हें ,कि हम कम बोलते हैं.

निगाहें हँसती भी मेरी, लगे नम  बोलते हैं,
भरम है उन्हें ,कि हम कम बोलते हैं.

किसी के हुनर को क़लम ,किसी के क़दम  बोलते हैं,
कोई ले  अल्फ़ाज़ों  का सहारा,किसी के ग़म  बोलते हैं.

गुफ्तगू से नहीं,लरज़ते अधर, सितम बोलते हैं,
भरम है उन्हें ,कि हम कम बोलते हैं.

जो तल्ख़ हों मिज़ाज  से,उनके अहम बोलते हैं,
तुम भी कहोगे मुख्तारी से, जो हम बोलते हैं.

नादाँ हैं जो दिलनशीं को, संगदिल सनम बोलते हैं.
शरारा   होता है   जिनकी  तहरीर में ,उनके दम बोलते हैं.

गुफ्तगू से नहीं,लरज़ते अधर, सितम बोलते हैं,
भरम है उन्हें ,कि हम कम बोलते हैं.

"रजनी "

रविवार, जून 27, 2010

जिस आसमां ने मुझको चमकना सिखाया ,.

जिस आसमां ने मुझको चमकना सिखाया ,
आज  खुद से वो ,क्यों  मेरा दामन छुड़ा गया.

मै चाँद तो थी पर चमक ना थी मेरी,
दी रौशनी मुझे दमकना सीखा गया.

थी मंजिल मेरे निगाहों के आगे,
पग बन मेरे ,मुझे चलना सीखा गया.

अँधेरा हटाने को मेरे तम से मन के,
वो बना कर सितारा,मुझे ही जला गया .

"रजनी" (रात )  की ना कहीं  सुबह है,
इस बात का वो अहसास दिला   गया.

"रजनी"

सागर में रहकर भी, प्यासे रह गये



सागर में रहकर भी,
प्यासे रह गये,
खुशियों के ढेर में भी,
उदास रह गये,
मोम लिए बर्फ पर थे,
फिर भी पिघल गये,
ठंडा था दूध,फिर भी ,
ठन्डे  दूध से जल गये,
मृग मरीचिका मन का भ्रम है,
फिर भी सोने का देखा हिरन,
तो मन मचल गये,
बंद रखा था पलकों को,
मोती छूपाने के लिए,
बंद पलकों से भी,
मोती निकल गये,
हर धड़कन को छू लें,
वो एहसास बन गये,
हम आदमी थे आम,
अब ख़ास बन गये,
सागर में रहकर भी,
प्यासे रह गये,
खुशियों के ढेर में भी,
उदास रह गये,
हम आदमी थे आम,
अब ख़ास बन गये. 


शनिवार, जून 26, 2010

वो, खुद को , पर्दानशी कहते रहे



" उठ गया चिलमन ,
उनके,
हर हसीन राज़ से,
फिर भी ,
वो,
खुद को ,
पर्दानशी कहते रहे."

"रजनी "