रविवार, मार्च 25, 2012

कौन सा ऐनक लगा लूँ मै

कौन सा ऐनक लगा लूँ मै,
जिससे ढँक जाये
तैरती हुई नमी आँखों की,
तुम तो आसानी से छुपा लेती हो
कई राज़,
अपने गर्भ में,
मचलते हैं कभी
लावा बनकर
जब जज्बात अन्दर,
तोड़ने को व्याकुल होकर
पाकर कमजोर सतह को,
समेट लेती हो
बड़े अनूठे अंदाज़ में,
जिसे बंजर के नाम से
पुकारते है कभी-कभी लोग,
कौन जाने,कौन समझे
जब सम्पूर्ण तरलता छा जाएगी,
तो होगा ना सृष्टि का विनाश,
तुमसे ही तो सीखा है ,
ऐ धरा ?
प्रयत्न भी है,
न तोड़कर बाहर आ जाये,
मन के उदगार का सोता,
और ले ले कोई रूप
जलते हुए ज्वालामुखी का,
या फिर लहरें हिलोर लेते,
न बदल जाएँ तूफान में,
नहीं होना चाहिए
रिश्तों के भूमि का
आच्छादन,
जिससे रिश्ते की भूमि
हो जाये बंजर,शुष्क,
डरती हूँ तरलता से भी,
क्योंकि,कमजोर नींव
तरलता पाकर
गिर जाती है|
पहना दो कोई ऐनक
मुझे भी,
जिसमे न दिख पाए
आर-पार,
शुष्क है निगाह
कि वहां नमी है |
"रजनी"
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