आ जाती थी हया की रेखाएं,
आँखों में
जब भी ढल जाता था ,
कांधे से दुपट्टा |
शर्माए नैन तकते थे
राहों में
जाने -अनजाने निगाहों को,
जब भी हट जाता वक्ष से
आंचल |
ख़ुद को
लाज के चादर में
सिमट कर
एकहरी
कर लेती थी ,
जब भी होती थी हवाओं संग
दुपट्टे की आँख मिचौली ,
हवाओं के रफ़्तार से ही
हाथ थामते थे आँचल को ...
पर ये क्या हो गया ?
अचानक कैसी आंधी आई
उड़ा ले गयी
निगाहों का पानी !
अब दुपट्टे
कांधे का बोझ बन गए
आंचल वक्ष पर थमते नहीं
ढलक जाते हैं !
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "