प्रकृति की सुन्दरतम रचना है |
जैसे तुम हो पुतले ,
हाड़ मास के बने हुए |
जीती , जागती , साँस लेती है ,
वो भी बिलकुल तुम्हारी तरह |
कैसे समझ लिया नारी को,
सिर्फ भोग की वस्तु ?
जब चाहा रौंद डाला |
इससे तुम्हारी पुरुषता
उसी दिन नामर्दी में तब्दील हो गयी ,
जिस दिन किया ,
किसी अबला के हया को तार -तार |
भूल गए शायद ?
तुम्हारे अस्तित्व का कारण भी ,
वो ही है एक मादा देह |
फिर कैसे मिलाते हो ,
नज़रें , किसी से ?
जो अपने कमजोरी को ,
पुरुषत्व समझ कर समझता है,
एक निरीह को रौंद कर ,
अपनी मर्दानगी साबित कर दी है ,
धिक्कार है ऐसे कापुरुषों पर,
अपनी ही रचना पर आज प्रकृति क्यों है मौन ?
अबला के जख्म पर दे ऐसी मरहम ,
ऐसे कापुरुषों का पुरूषत्व
कई सदियों तक न जागे |