कुछ उलझन भरे मन के सवाल से उभरी है ये नज़म ........
मेरी आवाज़ की गूंज मुझसे ही उठती है,
मुझसे ही टकरा कर खो जाती है.
जागती है तकदीर जब हम सोते हैं,
आँखें खुलते ही तकदीर सो जाती है.
हम चलते हैं जब भटकन की राहों में ,
तब कदम भी देते हैं साथ,
जब आने लगे मंजिल तो राहें खो जाती हैं.
क्यों होता है कुछ खोने के बाद ही पाने का अहसाह ?
जब पास हों तो कीमत खो जाती है.
जब मिलते हैं दर दर की ठोकरें कदम को,
तो हर सीधा रास्ता भी अनजाना लगता है.
मेरी आवाज़ की गूंज मुझसे ही उठती है,
मुझसे ही टकरा कर खो जाती है.
सोमवार, फ़रवरी 01, 2010
जब पास हों तो कीमत खो जाती है
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 1.2.10 3 comments
Labels: Poems
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