जब भी लिपटती हूँ ,
माँ से ,
मैं बच्ची हो जाती हूँ ,
उन्हीं बचपन की यादों में ,
मीठी लोरी में खो जाती हूँ ।
जीवन की राहों में,
धुप में, छाओं में ,
बुलंदी की मचान पर,
उम्र की ढलान पर ,
एक मजबूत तना हूँ मैं।
पर, माँ के आगे
कमज़ोर लता हो जाती हूँ ।
जब भी निकलती हूँ ,
मैं घर से अकेली
संभल कर जाना,
जल्द आना ,
यही हर बात पर ,
दुहराती है माँ ।
दुनियां की बद्द् नजर से
बचाने को अब भी ,
मुझे ,
काला टीका
लगाती है माँ ।
" रजनी नैय्यर मल्होत्रा "