संभले कदम भी लड़खड़ाते थे डगर पे
,तुझसे सहारे की आदत जो थी,
अब चलती हूँ तो लड़खड़ाने से डरती हूँ,
आज दामन थामने को तू जो नहीं. "
बुधवार, अगस्त 18, 2010
आज दामन थामने को तू जो नहीं
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 18.8.10 4 comments
Labels: Poems
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