शेखर जंक्शन पर दामिनी के आने का इंतजार रात
के ग्यारह बज़े से ही कर रहा था , जैसे जैसे रात गहराती
गयी स्टेशन की दुकाने बंद होती गयी और सन्नाटा
पसरने लगा | रात के ठीक 1.30 बज़े इंटरसिटी एक्सप्रेस अपने समय पर
पहुँच गयी , रात होने के कारण जंक्शन सुनसान सा था दो-चार लोग नज़र आ रहे थे | शेखर का इंतजार ख़त्म हुआ ट्रेन आकर लग गयी उसने कोच २ में दामिनी
को खिड़की से देखते हुए हुए आवाज़ लगायी , दामिनी अपने सामान समेट रही थी और अपने माता-पिता से विदा लेते हुए शेखर के साथ नीचे आ गयी,
दामिनी अपने माता पिता के साथ कई धार्मिक स्थलों से घुमकर वापस
आ रही थी , जिसे शेखर ने ही उस जंक्शन पर उतरने को कहा
था कि वो उसे लेने आ रहा यहीं से वो वापस घर
चली आएगी | वे
प्रतिक्षालय में ना जाकर सामान और बच्चों
को लेकर प्लेटफोर्म ३ कि तरफ बढ़ने लगे वही पर उनके घर जानेवाली ट्रेन लगी हुई थी जो
सुबह के ३.३० में उस जंक्शन से खुलती है | बच्चों को लेकर
सीट में दामिनी भी सोने की कोशिश करने लगी पर कुछ मच्छरों कि फ़ौज और प्यास लगने से
वो सो नहीं पाई उसने शेखर को पानी लाने के लिए कहा पर उसने दामिनी को ही कहा बाहर जाकर नल से आँखों और चेहरे को धोले जिससे वो
कुछ अच्छा महसूस करेगी | बेटी नंदिनी को लेकर
बाहर नल से चेहरे को धोकर पानी लेकर दामिनी वापस डब्बे में चली जाती है | वो रात १३ अप्रैल की रात थी ,ना जाने क्यों उस दिन
काफी आवारा से लड़के स्टेशन पर घूम रहे थे ,
शक्ल और हुलिए से न
तो मजदूर दिखते थे न ही विद्यार्थी | सबके सब रंगदार
से कमीज पैंट, कुर्ता पैंट | सबके हाथों में कुत्ते बांधनेवाली चैन
, मोबाइल और सर पर रुमाल
ऐसे बंधे जैसे कफ़न बांध कर घर से चले हों|
उनमे से कुछ गोल बनाकर पानीवाले नल के पास खा भी रहे थे ,
और उन्होंने दामिनी को डब्बे में चढ़ते हुए देखा भी |
खाने के बाद उनमे से तीन-चार लोग उठे और ठीक उसी डब्बे के सामने
लगे बैठकर मोबाइल पर गाना बजाना बार-बार
---छूना न छूना न, कभी चिकनी चमेली | पन्द्रह बीस मिनट तक ये तमाशा देखने के
बाद दामिनी ने ही शालीनता से डब्बे के खिड़की से कहा बेटा तुमलोगों को गाना ही बजाना
है तो जाओ कहीं और जाकर बजाओ या आवाज़ कम कर लो , सुबह जल्द स्कूल बच्चों को जाना है ,
मुझे भी निकलना है,
सारी रात ट्रेन में भी उतरने के लिए जागते रहे सो नहीं पाए हमसब, नींद आ रही सोने दो
| उनमे से एक ने कहा ठीक है आंटी हमलोग अब नहीं बजायेंगे ,
पांच मिनट तक उनकी ओर से कोई शोर नहीं आया, पर अचानक ही एक साथ तीन-तीन मोबाइल पर अलग-अलग गाने जैसे कान
फाड़ने वाले हों बजने लगे | इस पर दामिनी ने शेखर से कहा कितने उदंड हैं ये लोग उम्र भी
उतनी नहीं पर हरकत तो देखो इनकी , बार-बार मना करने पर
भी सुनाई नहीं दे रहा इनसबको, सुबह जल्द स्कूल भी
जाना है , तुम्हें भी ऑफिस निकलना है, और आँखें नींद से ऐसे
हैं जैसे कंकड़ चुभ रहे हो आँखों में |
अब इस बार खिज़ कर शेखर ने दामिनी का साथ देते हुए कहा अरे तुमलोग
सुनते नहीं हो क्या कहा जा रहा, कुछ तो संस्कार मिले होंगे , शिष्टाचार लगता है मालूम ही नहीं तुमलोगों को यहाँ से वहां तक ट्रेन में स्टेशन में तुमलोगों
को यही जगह मिला गाना बजाने के लिए |
उनमे से दो उठ कर चले
गए एक जो बाकी रहा वो कुछ देर बैठा
रहा फिर एकाएक उठा और जाते कहता गया हमलोग तो " शिष्टाचार को आचार बना कर खा गए
" इस ट्रेन में अभी भी बिजली नहीं थी, बाहर की ही रौशनी जो छन कर आ रही थी | और वे लोग दामिनी
को अकेली समझ कर उसे परेशान करनेवाली मंशा से ये हरकतें कर रहे थे , | अब उनकी हरकतों को नज़रंदाज़ कर दामिनी भी सोने की कोशिश करने
लगी जैसे शेखर व् बच्चे थे, ३.१५ हो रहे थे अब
सब डब्बों में बिजली आ गयी थी, अब वे लोग बंदरों सी भाग दौड़ कभी इस डब्बे में कभी उस डब्बे
में करते रहे , और कुछ शेखर की डब्बे में भी कोई यहाँ कोई वहां छितरकर बैठ गया | और लगे आपस में टिप्न्नियाँ कसने , बच्चों बोलो ए फॉर
अप्प्ल , बी फॉर बॉय , अरे सो न रे सुबह स्कूल जाना है .......कह कर हंसने लगे अब शेखर ने थोड़ी कड़ी रुख
अपनाई उसने उठ कर उनको डांटते हुए कहा बड़े बद्द्तामिज़ हो तुमलोग जाना कहाँ है तुमलोग
को ? पर वो ही लोग बेशर्मी से शेखर को बोलने लगे आपका घर नहीं है
ये , ट्रेन में टाइम पास करने
के लिए कोई टाइम नहीं होता है | उनकी उम्र कोई
खास नहीं थी सब के सब १५-१७ साल के बीच के थे पर व्यवहार पूरा आवारा, और गंवारों
वाली ,दामिनी अब फुसफुसाते हुए शेखर को कुछ भी कहने को मना करने
लगी | ये लोग न तो शिक्षित हैं ,न इनमे संस्कार शिष्टाचार
ही है , इतना ही पता होता तो बार -बार मना करने पर
वो लोग उत्पात नहीं मचाते | उपदेश वहां काम आता
है जहाँ समझ हो, ये लोग तो शक्ल से ही अनपढ़ ,जंगली ,और आवारा दिख रहे तुम
मुंह लगोगे और तुमसे उलझ पड़े तो ? सुबह के ३.३० हो चुके थे अब ट्रेन भी खुलने की सीटी देकर आगे बढ़ने
लगी | अबतक जितने भी उनमे से नीचे थे लगे उछल कर
चढ़ने , औए उस डब्बे में ही यहाँ वहा कर भर गए ,
और तेज़ आवाज़ में फिर मोबाइल पर गाना चलाने लगे ये कह कर की लगाओ सब अपने अपने मोबाइल में गाना
देखें साला कौन रोकता है ......जब ट्रेन थोड़ी गति पकड़ ली तब जिस लड़के को शेखर ने डाटा था उसने एक काले से लम्बे पतले लड़के को हाथ पकड़े
ठीक शेखर के पास लाया
और बोला भईया हमलोग गाना सुन रहे थे तो ये
ही मना कर रहा था बजाने से |उसने दहाड़ते हुए कहा
पहचानते हो की नहीं, शेखर को सम्भाले बिना ही उसने अपना एक जोरदार चांटा शेखर को देने के लिए हाथ उठाया ही था की
शेखर ने उसका हाथ रोक लिया और ये कहा कि शायद
तुम नहीं पहचानते , एक तो गलती करते हो
तुमलोग और ऊपर से परेशान करते हो दादगिरी दिखाते हो उतरना कहाँ है तुमलोग
को ? उसने फिर उस लड़के से कहा बता तो रे और कोई था जो तुमलोग को मना
कर रहा था , उनदोनों की बढ़ती झड़प को देखकर पास डब्बे से दो व्यक्ति और आ गए जिन्होंने शेखर को ही कहा जाने दो भईया
आप ही शांत हो जाओ , कह कर हटाते हुए शेखर
को अलग किया | हम लोग भी तो झेल रहे थे इन सबकी हरकत को , पर क्या करें आप भी झेल लेते |
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
बोकारो थर्मल
11 comments:
एक बार मेरे साथ भी ऐसे ही कुछ हुआ था,किन्तु मैंने पिटाई कर पुलिस के हवाले कर दिया,ऐसी घटनाए अक्सर ट्रेन में अधिक होती है,ये सब माँ बाप के द्वारा
सही शिक्षा और संस्कार न देने के कारण होता है,.....
मानव मन है जो सदा एक जैसा नहीं सोचता |सार्थक
उफ़ |
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
महतारी दिवस की बधाई
रितु जी,
पूर्व में हुई चर्चा के अनुसार आपके ब्लॉग से कुछ लेख को अपने दैनिक समचार पत्र भास्कर भूमि में प्रकाशित किया है। अखबार का प्रतियां आप तक भेजना चाहते है। आप अपने घर की पता भेजने की कृपा करे.......bhaskar.bhumi.rjn@gmail.com
भास्कर भूमि का ई पेपर देखें......www.bhaskarbhumi.com
मनुष्य के चरित्र पर संस्कार अपना अमिट छाप छोड़ देता है । प्रस्तुति अच्छी लगी । धन्यवाद ।
वाह...बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति...
बेहतरीन लघु कथा है। सचमुच आजकल यही होता है और इसीलिए आवारा लोगों के हौसले बढ़ते हैं क्यों कि कोई बोलता नहीं।
Aap sabhi ko mera hardik naman.......
कभी कभी ये लोग इतनी नीचता पर उतर आते है कि हम सोच भी नहीं सकते। क्या करे कुछ समझ मे नही आता।
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