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सोमवार, मई 30, 2011

करीब आ कर भी मौत , ना कर सकी मेरा आलिंगन


"करीब आ कर भी मौत ,
ना कर सकी मेरा आलिंगन ,

किया जो मैंने आलिंगन तेरा ,
कोई और इस जहाँ से कुछ कर जायेगा.

छोड़ गयी मुझे देकर ये संदेशा,
शब्द तुझसे ही जिंदा हैं.

भाव मन का दर्पण, कवित कर्म को अर्पण,
खो गए जो शब्द, काव्य कहाँ बन पायेगा.

" रजनी"

गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

"वो बुरी औरत" अगली कड़ी ..

...........
ये सिर्फ एक कहानी अथवा  लेख ही  नहीं भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई है
. यहाँ सदियों से  नारी को बंधन में रखा गया उस  पर  अनेकों बंदिशें
लगायी लगी.पुरातन काल से ही नारी को एक उपभोग की वस्तु मात्र माना जाता
रहा . जिसकी योग्यता बस इतनी मानी जाती थी पति की सेवा हर तरह से करना ,
परिवार के सदस्यों की देखभाल करना घर की जिम्मेवारियां निभाना,व् संतान
उत्पति करना ...पर घर के किसी महत्वपूर्ण फैसलों पर उसका कोई हस्तक्षेप
नहीं स्वीकारा जाता था, फैसला करना तो दूर की बात उसे इन तरह के मामलों
से तटस्थ ही रखा जाता था . और धीरे धीरे पुरुष प्रधान समाज में नारियों
के लिए परम्परा निर्वाह हेतु एक  परम्परा की तरह  ये सारे बंधन फतवे की
तरह जारी हो गए .परन्तु सवतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश की नारियों
की स्थितियां सुधरने लगी नारी शिक्षा पर बल दिया गया,स्त्रियाँ जागरूक
होने लगी अपने अधिकारों के मामले में ,उन्हें भी शिक्षित होने का गौरव
प्राप्त होने लगा ,पर जो नहीं शिक्षित हो पाई वो अपने बेटियों को बेटों
की तरह शिक्षा दिलाने लगी .शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, वह  मनुष्य
के मानसिकता को भी प्रभावित करती है . जैसा ज्ञान मिलेगा हमारा मस्तिष्क
भी वैसा ही सोंचेगा. अन्तत स्वतन्त्रता के बाद धीरे धीरे नारियों के बंधन
के सारे रास्ते खुलने लगे ,वो पहले से ज्यादा खुला वातावरण में पोषित
परिवेश  पाने लगी . बचपन से यौवन तक की दहलीज तो आराम से काटती है नारी
जबतक वो बाबुल के आँगन में रहती है ,परन्तु विवाह के बाद उसके जीने का
ढर्रा ही बदल जाता है हर किसी के साथ ये बंधन लागु नहीं होता  हो ,पर आज
भी अधिकांश नारियां बंधन में हैं .विवाह के बाद आये बदलाव में उसके पहनने
ओढने से लेकर ,हर रीति रिवाज परम्परा के नाम पर एक हंसती  खेलती जीवन के
अल्हड कंधे पर डाल दिया जाता है दुनिया भर के परम्परा रीति रिवाज
दुनियादारी का बोझ .एक नए रिश्ते  में बंध कर लड़की कितने ही रिश्तों में
बंध जाती है ,फिर हर रिश्तो  में कभी हंस कर कभी रो कर अपने बंधे होने का
वो ब्याज चुकाती है ....... जिस लड़की को मायके के माहौल सा मनचाहा ससुराल
का भी माहौल मिले उसे किस्मत की धनी कहा जाता है .जिसे सारे (ससुराल के )
सदस्य उस नयी लड़की को अपने रंग में ढाल लेते हैं या यों कहें नयी माहौल
में उस लड़की को कोई परेशानी नहीं होने देते व्यवस्थित होने देने में उसपर
कोई जुल्म नहीं होता ,यहाँ जुल्म की बात मै दो अर्थों में कर रही . "एक
होता है शारीरिक यातना" एक मानसिक यातना " जिसे व्यंग्य वाणों से काफी
लोग छोड़ते हैं ,कहते हैं तन के घाव उतने चोट नहीं करते  जितने गम्भीर चोट
मन के घाव करते हैं
अक्सर देखा जाता है एक स्त्री जब सास का ओहदा पा जाती है उसके मन में एक
क्रूर शासक का जन्म हो जाता है जो सारी जीवन अपनी बहु रूपी अपराधी पर
जुल्म करना न्याय समझती है अपने सास होने के नाते. पर ये बात वो यहाँ भूल
जाती है ,कि जब वो भी इस मोड़ पर थी उसे भी कितने समझौतों व् परेसानियों
से गुजरना पड़ा होगा अपनी जिम्मेवारियां निभाने में जब वो बहू कि भूमिका
निभा रही थी.  उससे भी कई त्रुटियाँ हुई होंगी . पर नहीं हो पाता बहुत सी
नारिया अपनी पिछली जीवन को भूल जाती हैं ,और लगती हैं बहू कि कमियां
निकालने और सबके सामने उसकी गलतियाँ गिनाने.  या तानो में या दो चार
सहेलियों , पड़ोसनो के बीच  बता कर बहू कि कमियों को . क्या ये जो अपनी
बहू के लिए करती हैं द्वेष का भाव क्या अपनी बेटी के लिए भी ऐसी विचार
रखती हैं ,??  शायद नहीं अपनी बेटी के लिए तो हर कोई घर परिवार ऐसा
मांगता है जो बेटी को पलकों पर बिठा कर रखें उसे कोई भी तकलीफ ना दे...
कोई ही ऐसी सास होती होगी जो अपनी बहू को भी बेटी के समान प्यार देती हो
. और घर के सदस्यों से भी ऐसा ही व्यवहार करने को कहती हो ...यदि आप किसी
की कमियों को चार लोगों के सामने ना ज़ाहिर  कर या उसे तानो की बौछार ना
कर उसे अकेले में समझा दें की तुमसे ये गलती हुई है आगे से ध्यान रखना
तो क्या उस इन्सान की नजरो में  आपकी इज्जत नहीं बढ़ जाएगी ? जरुर हो सकता
है ये जब आपकी बातों पर सामनेवाला अपना ध्यान लायेगा और निष्कर्ष में मन
से स्वीकार भी कर आकलन करेगा कि, मेरी कमियों पर तिल का ताड़ ना बना कर
,मुझे अकेले में बता कर लोगो की नजरो में मेरा मजाक बनने से मुझे बचा
लिया. ना आपका स्वाभिमान आहत हो ना सामनेवाले का .....ये हो सकता है यदि
ये समझ में आ जाये कि कोई भी पौधा किसी भी जगह से उखड़ कर किसी अन्य नयी
जगह पर लगने में उस जलवायु में लगने और पोषित होने में थोड़ा समय लेता है
,यदि दोनों जगह कि मिटटी एक सी रही तो वो आसानी से पनप जाता है,पर यदि
मिटटी में अथवा जलवायु में अंतर रहा तो पनपने में थोड़ा समय अवश्य लेगा ,
ऐसे में माली को थोड़ा सा मेहनत के साथ धैर्य करना चाहिए .ये पौधा खिलकर
माली का मान अवश्य बढ़ाएगा .यही बात निर्भर करता है कई वर्षों तक एक
परिवेश में रह रही लड़की का नयी परिवेश में आना बहू बन कर ,यहाँ सास को
माली कि तरह बन जाना चाहिए जिससे घर गृहस्थी कि गाड़ी आराम से चल सके ,पर
समझदारी कि कमियों कि वजह से कई घर बिखर जाते हैं, बहुत सी ऐसी बहुएँ हैं
जिनका या तो शोषण होता है या वो ज्यादतियां सहते सहते विद्रोह पर उतर
जाती है जब उसके सब्र का बांध  टूट जाता है. इन परिस्थितियों में एक
अच्छा खासा रिश्ता बिगड़ जाता है उसमे कडवाहट के फल लग जाते हैं ये कहानी
भी कुछ इसी तरह है .......

पढ़े "वो बुरी औरत "के  आगे के अंक में ..........

रविवार, अप्रैल 10, 2011

वो बुरी औरत

वक़्त के बदलने से परिवर्तन काफी आये , इन परिवर्तनों  के साथ नयी पीढ़ी की सोंच में भी बदलाव आते गए.
और इसी बदलाव के साथ एक अच्छी शुरुवात भी हुई ,और उसी बदलाव ने नारी के जीवन स्तर पर कुछ सुधार अवश्य किये, नारी भी अपनी इच्छा के मनचाही पढाई, मनचाही नौकरी के कारण घर से बाहर तक का सफ़र आसानी से तय करने लगी . पर एक जगह आज भी ऐसी है जहाँ अब तक काफी महिलाएं वही पुरानी विचारो की चादर में लिपटी लोगों की उसी  विष बातों से आहत होती है.  विवाहित महिलाएं  (खास तौर से बहू ) कुछ जगहों पर अपने घर परिवार में समाज में जलील  होती है  शब्दों के वाणों से , जब वो वर्षो से चली आ रही पुरानी परम्परा रूपी दकियानूसी जंजीरों को तोड़ना चाहती है . उन विचारो का विरोध करती है जो उसके हक में नहीं उन्हें मानने से इनकार करती है तो उस पर अनेको लांक्षण लगने लगते है "बुरी औरत है, बदचलन है  ,बदमाश  है न जाने और क्या क्या उसे सुनने पड़ते  हैं. इस पुरुष प्रधान समाज में आज भी पुरुषों को ज्यादा इज्ज़त  दी जाती है महिलायों से, शिक्षित हों या  अशिक्षित . यहाँ मै पति पुरुष की बात कर रही जिसके शान के सन्दर्भ में स्त्री  को क्या क्या पाठ पढाया जाता है पति का नाम लेकर क्यों बुलाती हो पति की उम्र कम होगी, पति के जूठे बर्तन में खाओ तुम्हारी सदगति इसी में है. पति की हर बात को सुनो और मानों चाहे उसका फैसला गलत क्यों न हो अपनी जुबान मत खोलो...... और सबसे ज्यादा ज्यादती की बात तो तब होती है जब कोई स्त्री पुरुष के द्वारा पीटी जाती है उस स्त्री की गलती हो या न हो बस अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए कितने पुरुष अपनी पत्नियों की बेबात ही पिटाई लगाते हैं .पुरुष चाहे एक थप्पड़  मारे या दस थप्पड़ उसे शान से मान दिया जाता है समाज में ,घर में खुद बड़ी बुजुर्ग  महिलायों के मुंह  से सुना जाता है औरत को मारते पिटते रहो तो वो काबू में रहेगी . पर ये बात भी सिर्फ बहू रूपी नारी के लिए इस्तेमाल करती हैं यदि किसी बात पर किसी बहू बेटे में लड़ाई हुई तो तपाक से ये शब्द इसे काबू में तब ही रख पाओगे जब इसकी धुलाई करोगे यानि की स्त्री का जन्म ही हुआ है जुल्म सहने के लिए ......और ये जुल्म  सिर्फ बहू के लिए ,बेटी के लिए कोई माँ नहीं कहती की दामाद भी बेटी को मारे ,बस बेटे को ये पाठ पढाया  जाता है बहू को पीटो काबू में रहेगी .और इसी तरह लड़ाई झगडे में किसी बात पर किसी पुरुष के मारने पर कोई स्त्री पलट कर हाथ छोड़ दे एक भी वार करे पलट  कर तो उस स्त्री का जीना हराम कर देते हैं लोग, आस पड़ोस घर बाहर हर जगह यही ढिंढोरा पिट दिया जाता है ,गन्दी औरत  है, बदचलन है,  पति की इज्ज़त नहीं करती पति को मारती है न जाने क्या क्या . आखिर पति है उसको हक है पत्नी की पिटाई करने का ,पत्नी का धर्म है पिटाई खाना वो चाहे मार कुटाई के दौरान चाँद से चेहरे पर नक्काशी खिंच से या हाथ पैर तोड़ दे मुंह  से आवाज भी मत निकालो बस पिटती रहो भगवान् जो हैं पति परमेश्वर हैं.. क्या स्त्री का मान समान नहीं ?? जब  पुरुष को दस थप्पड़ के बदले सिर्फ एक थप्पड़  मिल जाता है स्त्री के हाथों तो पुरुष के  मान सम्मान  को आघात लगता है क्यों ? क्योंकि वो पुरुष है दम्भी है ,क्या स्त्री गुणी नहीं सम्मानित नहीं. ?????? सर्व गुण सम्पन होने के बावजूद आज भी अधिकांश स्त्रियाँ पिटती हैं पुरूषों  के हाथों और इसकी जिम्मेवार सिर्फ स्त्री जाति ही है जो कभी माँ के रूप में कभी दादी के रूप में नानी चाची बन कर पुरुषो को सही संस्कार नहीं दे पाती ,उन्हें बस एक ही बात विरासत में आदिम काल से मिली है स्त्री का कोई वजूद नहीं पुरुष ही पुरुष है सभी जगह ,पर अफ़सोस ये सारी बातें हर स्त्री जाति के  उपर लागु नहीं है , आज तक कभी किसी बेटी के लिए कोई माँ नहीं  कहती उसकी बेटी  की ससुराल में दुखी हो बल्कि बेटी को तो हर बार मायके आगमन पर ये सिखाया जाता है ki   दामाद को कैसे अपने मुट्ठी   में रखो क्या करो क्या न करो जिससे वो बेटी की ही गुण गाये, पर यही बात बेटा बहू पर जताए तो (जोरू का गुलाम ) बीवी का गुलाम  मत बन, बहू की बात मत  मान  नहीं तो एक दिन अँगुलियों पर नचाएगी. .. और इसी डर से शुरू होता है  बहू रूपी नारी का हर जगह शोषण .......... कितने जगहों  पर बेकसूर स्त्री को भी पुरुष पूरी बात सुने बिना जाने बिना बस मार पिटाई कर देते हैं .जो स्त्री शांत है  या ये समझ कर जीती आ रही की भाग्य में ही पति की मार लिखी है ,पति परमेश्वर होता है उसकी जायज नाजायज हर बार मेरे लिए मान्य है,  वह तो हर दिन सब कुछ सहन कर सकती है ,पर जहा नारी स्वाभिमानी हो उसके अहम पर यही ठेंस लगती है तो उसका वो विरोध जरुर करती है और करेगी . जब विरोध में वो उतर जाये तो उसे कुल्टा, बदचलन ,गन्दी ,बुरी औरत और जैसी कितने नामों  से सुशोभित   किया जाता है ..... इसी दौर  से  कई नारी गुजर रही होंगी ......... आगे इसी से सम्बन्धित एक सत्य कहानी को उजागर करेगी मेरी अगली पोस्ट "
" वो बुरी औरत"  की अगली कड़ी .... में

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"