जरा अँधेरा होने से रात नहीं होती,
अश्कों के बहने से बरसात नहीं होती.
दीपक के बुझ जाने से,
ज्योति गरिमा नहीं खोती.
दीया खुद जलकर,
औरों को रौशनी देता है.
खुद तो जलता रहकर ,
अन्धकार हमारा लेता है.
ये देता सीख हमें,
अच्छाई की राह पर चलना.
दीया की तरह ही जलकर हम भी ,
औरों को रौशनी दे पाए.
कुछ करें ऐसा जिससे ,
जीवन सफल ये कहलाये.
छोटी सी ये दीया की बाती,
पाती हमें ये देती है.
बदल जाता जहाँ ये सारा,
हम भी हर लेते किसी के गम.
पर ये बात अब कहाँ रह गयी,
मतलबी दुनियाँ में कहाँ ये दम.
हम अपने अंदर ही इतने हो गए हैं गुम ,
कौन है अपना कौन पराया मालूम नहीं .
खुद को लगी बनाने में ये दुनिया,
किसी की किसी को खबर नहीं,
दो वक़्त की रोटी कपड़ा में,
अब तो किसी को सबर नहीं.
जल जायेगा जहाँ ये सारा,
सारी दुनिया डूबेगी.
सदी का अंत लगता है आ गया,
गहराई में डूबोगे तो ,
पता चले हर बात की,
रंग बदलते फितरत सारे,
पता चले ना दिन रात की.
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
रविवार, सितंबर 19, 2010
जरा अँधेरा होने से रात नहीं होती
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 19.9.10 5 comments
Labels: Poems
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