खुद का जख्म छूपाते फिरते ,
गैरों पर नमक लगाते हैं,
अपनी कोई व्यथा या परेशानी,
सबसे लिए छूपाते है,
गैरों की कोई बात हो तो ,
चटकारे लिए सुनाते हैं,
खुद का एक दाना भी जख्म का ,
लोगों की निगाहों से बचाते है,
दुसरे के गहरे भी जख्म तो,
उसपर छुरी चलाते है,
ये ही तो रस्म है दुनिया का,
जो बड़े प्यार से लोग निभाते हैं,
बड़े यतन से चोट पर,
और प्रहार कर जाते हैं,
कुछ तो ,
खुलेआम ही खंजर चलाते है,
खुली रहें आँखें हमारी ,
और काजल चुराते हैं,
कब चल जाए जुबाने खंजर,
हम भान लगा ना पाते हैं,
समझ पाते हैं जबतक,
तबतक तीर चुभ,
आरपार हो जाते हैं,
कभी,कभी तो ऐसी मक्कारी,
खुद अपने ही कर जाते है,
गैरों की बातों को लोग,
दिल थाम के सुनाते हैं,
जब पड़ जाए यही खुद पे,
तो सौ,सौ रंग दिखाते हैं,
गैरों की कोई बात हो तो,
चटकारे लिए सुनाते हैं,
अपनी कोई व्यथा या परेशानी ,
सबसे लिए छूपाते है,
मरहम की कौन बात करे,
मुट्ठी भरे रखते हैं नमक से,
वक़्त मिलते ही ,
जख्म पर नमक डाल जाते हैं,
आंसू कौन यह पर पोंछे,
लोग बस नैन भीगा जाते हैं,
क्या पाते है ,
दूसरे के गिरेबान में हाथ लगाते हैं,
सामनेवाले की ओर,
अंगुली उठाते हैं,
ये सोंच नहीं पाते हैं,
एक अंगुली सामने वाले की,
बाकी तीन तो अपनी कमी दिखाते हैं,
यही तो रस्म है दुनिया का ,
जो बड़े प्यार से लोग निभाते हैं,
खुद का जख्म छूपाते फिरते ,
गैरों पर नमक लगाते हैं,
दूसरे के गहरे भी जख्म तो,
उनपर छुरी चलाते हैं,
यही तो रस्म है दुनिया का ,
जो बड़े प्यार से लोग निभाते हैं.
"रजनी "
शनिवार, नवंबर 28, 2009
खुद का जख्म छूपाते फिरते गैरों पर नमक लगाते हैं
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