गुरु गढ़ता था
अपने ज्ञान के सांचे पर
निकलते थे
तब जाकर
गुरु भक्त आरुणि,
राम,
एकलव्य
अर्जुन !
लक्ष्य होता था
संधान का |
कल्याण का ,
फैलाते रहे प्रकाश
पुंज
नवीन ज्योति का
तभी तो आलोकित
है
युगों तक उनका
नाम |
बुहारते रहे
पथ कर्म का
,
फल की चाह
से बनकर
अंजान ...
सन्मार्ग की गति
सदा पथरीली रही
है
गुरु सदा से
निकालता
रहा
उसी पथरीली ज़मीन
को
तराश कर
अपनी अनुभूतियों
और क्षमताओं से
खिलाता रहा
है
महकता हुआ पुष्प
गुच्छ
जो कहलाते आये
हैं
कर्मधार,
युगपुरुष,
वीरांगना,
विदुषी |
लहरा रहे दिग-
दिगंत तक
अपनी शौर्य की
पताका
वैदिक युग से
लेकर इक्सवीं सदी तक ...
पर आज बदल
रहा है
गुरु की परिभाषा
खोने लगा गुरु अपनी
महत्ता
भूमि वही उर्वर
है
बीज पुष्ट नहीं
बन पा
रहे |
नैतिकता की ,
सम्मान की,
विश्वास की,
ज्ञान की तुला
में
खोता जा रहा
है
आज गुरु अपना घनत्व …
कैसे निर्धारित करेंगे
आनेवाले समय में
जीवन मूल्यों को
?
गुरु -शिष्य परम्परा
को !
जहाँ उपनयन संस्कार
के बाद
अधिकार की डोर
गुरु सँभालते थे
कर्तव्यों का निर्वाह
शिष्य हँसकर करता
था
फिर से चाहिए
आनेवाले कल को
गुरु ...
जो ले जाये
अंधकार से
प्रकाश की
ओर
तुम बनो भावी
गुरु जिसकी
ओज
वशिष्ट ,
द्रोण,
विश्वामित्र,
परशुराम,
शौनक,
चाणक्य,
शंकराचार्य,
संदीपनी,
रामकृष्ण परमहंस
सी भी ऊँची
और प्रखर
हो ,
जो बनाये रखे
गुरु की महत्ता
हर युग
में |
"रजनी मल्होत्रा नैय्यर
"