कई बार खो जाते हैं ,
साथ रहते,चलते
करीबी रिश्ते |
जब ,
सर उठाने लगती है
साथ गुजारे
लम्हे
कुछ लौट आते हैं
उलटे क़दम
जैसे आ जाता है ,
सुबह का निकला पंछी नीड़ में
|
कुछ अजनबी बन कर
नदी का किनारा सा रह जाते हैं
|
पी रहे हैं ,
हमारे तुम्हारे जैसे
सरल आशुतोष
रिश्तों के मंथन से निकले विष
को
पर नहीं कहला रहे नीलकंठ !
दूर खड़ी
मौन , टूटे मनके को
रह-रह कर बांधती है ,
पर भावनाओं के बिखरे मोती
छटक कर दूर चले जाते हैं !
"रजनी मल्होत्रा (नैय्यर
)