'द  सोहेल 'कोलकाता  की मासिक पत्रिका में छपी मेरी ग़ज़ल
और कितने आसमान
चाहिए उसअत
के लिए
ज़मीं  कम पड़ने  लगी    है    राहत  के   लिए 
आ  की
!  दोस्ती   का   एक   पौधा  लगा दें 
बहुत  वक़्त  पड़ा    है  अदावत    के     लिए
हर  सु  है   गिराँबारी   का   आलम अल्लाह 
वक़्त माकूल  
सा  लगत  है बगावत के
लिए 
कई  पेच -
व्- ख़म    बाक़ी     हैं   ज़ीस्त  के 
साज़ - वो - नगमा
उठा 
रखो  फुर्सत
के लिए  
लफ़्ज़ों   में बयाँ  कर   न   सकूंगी  
जज़बात  
हौसले  दिल में  हैं उर्दू   की अज़मत  के लिए
बस  इक किरण  उजाले  की  ज़माने  को  दूँ 
है ग़ज़ल "रजनी
" दुनिया की मुसर्रत के लिए
उसअत -   फैलाव
अदावत -   दुश्मंनी
गिराँबारी -  महंगाई
ज़ीस्त -     ज़िन्दगी
अजमत – महत्व
मुसर्रत  -  खुशी
" रजनी मल्होत्रा नैय्यर " 
 (बोकारो थर्मल )
