अभी कुछ दिनों पहले मेरी एक रचना आई थी जिसका शीर्षक मैंने "पछतावा"रखा था| उस रचना में मैंने समाज में नारी के ऊपर फब्तियां करते पुरुषों(मनचले लड़कों ) को दिखाया था,इस वर्ग पर कटाक्ष था मेरे लेख में|पर,उस लेख से मै पूरी तरह संतुष्ट नहीं थी,और कुछ आवाम भी ,जिनके प्रश्न मुझे आये रजनी जी हर जगह मर्द गुनाहगार नहीं होता, उनमे लड़कियों का भी दोष होता है |मै भी इस बात को मानती हूँ ,ताली एक हाथ से नहीं बजती|
ये लेख उन कलियुग की बालाओं के लिए है,जिन्होंने बिना हाला के पान से ही ,मदमत कर रखा है अपने अदाओं से,जिस्म की नुमाइश से,तंग हाल कपड़ों से|जिसमें देख कर किसी के भी ह्रदय में हलचल मच जाये,कम्पन हो जाये अंतरात्मा में|
नारी का गहना "शर्म " को कहा गया है,शर्म का अभिप्राय दो तरह का होता है|एक निगाहों में शील,दूसरा वैसे वस्त्र,वैसी अदाएं ,जो आपको खुबसूरत दर्शाती हों,मोहक लगनेवाली हों|
ना की नशीली हावभाव से पुरुष वर्ग को आकर्षित करती हों|
परदे में रहने दो,परदा ना उठाओ,
ऐसे ही रहा तो,जीना मुश्किल हो जायेगा |
पर्दानशीं होती रही जो बेपर्दा,
शर्म को भी शर्म आ जाएगी|
घूँघट उतना ही उठाओ कि,
चाँद दिख जाए
इतना भी ना कि,सरक जाए,
हो जाओ पानी,पानी|
ये कलियुग कि अप्सराओं,
मेनका ना बन जाओ
क्योंकि,यहाँ कोई विश्वामित्र नहीं|
महाभारत में हुआ ,
द्रौपदी का चीरहरण |
पर आज तो चीरहरण की जरुरत ही नहीं,
क्योंकि,तुम ही खुद द्रौपदी हो,
खुद हो दुर्योधन,
परदा की वजाय दिखाती हो यौवन|
जब खुद कहती हो ,
आ बैल,मुझे मार,तो क्या करे संसार|
खुद ही लगा कर आग,
कहती हो, कैसे बचाऊं दामन|
दामिनी सी चपला रहोगी,
तो होगा चंचल,
किसी का भी मन |
कहते हैं अमूल्य वस्तु को
सहेज कर रखा जाता है
सहेजो तन को,अमूल्य है ये धन|
पता है मुझे,
तुम इक्कीसवी सदी में
जी रही हो|
फिर भी ये समझ लो,
किसी भी चीज़ की अति,
विनाश का कारण बन जाती है|
"अति का भला न बोलता,
अति की भली ना चुप,
अति की भली न बरसना,
अति की भली ना धूप"
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
ये लेख उन कलियुग की बालाओं के लिए है,जिन्होंने बिना हाला के पान से ही ,मदमत कर रखा है अपने अदाओं से,जिस्म की नुमाइश से,तंग हाल कपड़ों से|जिसमें देख कर किसी के भी ह्रदय में हलचल मच जाये,कम्पन हो जाये अंतरात्मा में|
नारी का गहना "शर्म " को कहा गया है,शर्म का अभिप्राय दो तरह का होता है|एक निगाहों में शील,दूसरा वैसे वस्त्र,वैसी अदाएं ,जो आपको खुबसूरत दर्शाती हों,मोहक लगनेवाली हों|
ना की नशीली हावभाव से पुरुष वर्ग को आकर्षित करती हों|
परदे में रहने दो,परदा ना उठाओ,
ऐसे ही रहा तो,जीना मुश्किल हो जायेगा |
पर्दानशीं होती रही जो बेपर्दा,
शर्म को भी शर्म आ जाएगी|
घूँघट उतना ही उठाओ कि,
चाँद दिख जाए
इतना भी ना कि,सरक जाए,
हो जाओ पानी,पानी|
ये कलियुग कि अप्सराओं,
मेनका ना बन जाओ
क्योंकि,यहाँ कोई विश्वामित्र नहीं|
महाभारत में हुआ ,
द्रौपदी का चीरहरण |
पर आज तो चीरहरण की जरुरत ही नहीं,
क्योंकि,तुम ही खुद द्रौपदी हो,
खुद हो दुर्योधन,
परदा की वजाय दिखाती हो यौवन|
जब खुद कहती हो ,
आ बैल,मुझे मार,तो क्या करे संसार|
खुद ही लगा कर आग,
कहती हो, कैसे बचाऊं दामन|
दामिनी सी चपला रहोगी,
तो होगा चंचल,
किसी का भी मन |
कहते हैं अमूल्य वस्तु को
सहेज कर रखा जाता है
सहेजो तन को,अमूल्य है ये धन|
पता है मुझे,
तुम इक्कीसवी सदी में
जी रही हो|
फिर भी ये समझ लो,
किसी भी चीज़ की अति,
विनाश का कारण बन जाती है|
"अति का भला न बोलता,
अति की भली ना चुप,
अति की भली न बरसना,
अति की भली ना धूप"
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"