शनिवार, दिसंबर 31, 2011

हर शख्स पे तेरा चेहरा नज़र आने लगा है

अब  तो  हर शय  पर  तू   छाने   लगा   है
हर शख्स पे तेरा चेहरा नज़र आने  लगा है.                                                                     

चाहत में  मिलेगी ऐसी सज़ा  , मालूम न था                                      
 रह -रह  कर याद-ए-माज़ी  सताने  लगा  है.

भर जाते हैं ख़्वाब  आँखों में, नींद आये बिना,
तू तो जगती आँखों में सपना दिखाने लगा है.

यह   अदा-ए -बेन्याज़ी   जान ले लेगी  मेरी
तेरी   ख़ामोशी   मुझे पागल  बनाने लगा है.

कभी   वक़्त   को   हम     आज़माते     थे,
आज   वक़्त    हमें    आज़माने    लगा  है.

 अब    कटते    नहीं   हैं ये लम्हे ये घड़ियाँ,
मौसम   भी अपना    रंग  दिखाने   लगा है.

अब   तो हर   शय   पर तू   छाने  लगा  है,
हर शख्स पे तेरा चेहरा नज़र आने लगा है.



रविवार, दिसंबर 18, 2011

हौसले जब जवान होते हैं

हौसले       जब    जवान    होते     हैं,
ज़ेर    पा       आसमान    होते      हैं.

ग़म को    पीकर   जो  मुस्कुराते     हैं,
आदमी    वो     महान    होते        हैं.

मसालें     लेकर       अपने   हाथों   में,
अमन    के       पासबान     होते     हैं.

ताबे    परवाज़   जिनके    अन्दर    हो,
उनकी   ऊँची          उड़ान   होते     हैं.

राज़ कुछ तो  है   इस     तकल्लुफ का,
आप    क्यों        मेहरबान     होते   हैं.

शोज़-ए-ग़म    से   भरे   हुए    दिल  के,
पुरअसर        दास्तान        होते     हैं.

ज़ेरपा       बरिया          नशीनों      के,
ए     जमीन-   आसमान       होते    हैं.

टूटते  हैं        कलम   से       शमसीरें,
वैसे   ए           बेज़बान   होते         हैं.

मुझको भी उनपे  कुछ शक है, "रजनी"
वह      भी कुछ   बदगुमान     होते हैं.









रविवार, दिसंबर 11, 2011

मै दीया था सर-ए - राह जलता रहा,

  जिनको चाहा किये दोस्तों की तरह,
  वो बदलते रहे मौसमों की तरह .

मै दीया था सर-ए  - राह जलता रहा,
आंधियां तेज़ थी पागलों की तरह.


है तकद्दुस दिलों में  जर- ओ - माल का ,
जाने क्यों मंदिरों मस्जिदों की तरह.

वह घड़ी भर में झंझोड़ कर चल दिया,
मेरे जज्बात को आँधियों की तरह.

दास्तान -ए-दर्द  दिल मेरी आँखों से ,
आज "रजनी" रवाँ आंसुओं की तरह .

तकद्दुस--श्रद्धा
रवाँ -- बहना ,जारी रहना.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

नसीब देखिये कैसे अजीब होते हैं

सुलगते दिल के शरारे अजीब होते है,
भड़कती आग के शोले अजीब होते है.

ढलक ही जाते हैं पलकों से क़तर-ए-आंसू,
ग़म-ए -जुदाई के लम्हे अजीब होते हैं.

तड़प   रहा है कोई, और सुलग रहा है कोई,
यह चाहतों के भी किस्से अजीब होते हैं.

जुबाँ खामोश निगाहों से बात होती है,
नज़र नज़र के इशारे अजीब होते हैं.

हुआ है शहर में गुम, ढूंढते हैं जंगल में,
जूनून-ए-इश्क के मारे अजीब होते हैं.

किसी की होके  भी "रजनी" किसी की हो ना सकी,
नसीब देखिये कैसे अजीब होते हैं.

बुधवार, नवंबर 30, 2011

आज हंसकर बिखर जाओ फिज़ाओं में

बंद कर दो मयकदों के दरवाज़े,
वो बनकर सुरूर   छानेवाला है,
आज हंसकर बिखर जाओ,
 फिज़ाओं  में ,ऐ बहारो,
कि मेरा जान-ए - बहार आनेवाला है.

मंगलवार, नवंबर 29, 2011

मेरे मूक लबों के तिलिस्म को तोड़ देता है



     " मेरे मूक लबों के तिलिस्म को तोड़ देता है ,तेरा पलभर का मुस्कुराना,
       मेरी मुहब्बत को हवा देता है , तेरा   शरमाकर सर झुकाना.

सोमवार, नवंबर 28, 2011

ये हँसता हुआ झील का कवल

"मेरी  चलती रूकती  सांसों पर ऐतबार तो  कर,
ये हँसता हुआ झील का कवल,  मेरे बातों पर ऐतबार तो  कर,
तू यूँ ही खिल जायेगा जैसे दमकता माह ,
बस एक बार मुस्कुरा के दीदार तो कर . "

सोमवार, अक्तूबर 24, 2011

घर के दीवारों पर लगवा दी है रुपहले रंग रोगन

घर के दीवारों पर लगवा दी है रुपहले रंग रोगन ,मन की दीवार पर क्यों वैर का भाव चढ़ा है,
दीपों की जगमगाहट से ले लें कुछ सन्देश,आ दूर करें हम भी किसी के जीवन से अँधेरे को .

धनत्रयोदशी एवं दीपावली की आप सभी को मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं
."रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

शनिवार, सितंबर 10, 2011

हर तरफ अब तो आतंकी शोर है

हर तरफ अब तो आतंकी शोर है,
निशाने पर दिल्ली, मुम्बई, कभी बंगलोर है.

काला चश्मा, तेल कान में डाले सरकारे आला बैठिये,
जब हो जाएँ हादसे कहते हैं कैसे आ गए घुसपैठिये.

भोली जनता होती  रही  आतंकी शिकार है ,
बिन चाभी के ताला सा लोकतंत्र बेकार है.

राह चलना मुश्किल अब तो हथेलियों में जान है,
अंधी बहरी व्यवस्था पर जनता कुर्बान है.

समय समय ये खून खराबा बदला हुआ परिवेश है
हो जाओ खुद ही तैयार  खतरे में  देश है .



गुरुवार, सितंबर 08, 2011

अब तो टूट कर बिखरने की चाहत है

   तुझे मुझसे जितनी  नफरत है,
  तेरी उतनी ही  मुझे  जरुरत है.

 मिसरी भरी निगाहें ही मीठी नहीं होती,
 तेरे अंगार भरे निगाहें भी खुबसूरत हैं.

 कैसे कह दूँ कोई खैर करता नहीं,
 इस नफरत में जलना तेरी प्रीत या फितरत है.

घिरे हों जब आँखों में अविश्वास के बादल,
हर अच्छी बातें भी लगती बदसूरत हैं.

जो ख्वाब बुनते हैं हम लगन से,
वो टूट कर भी रहते खुबसूरत हैं.

जानती हूँ कोई तोड़ नहीं पायेगा,
फिर भी तुमसे टूटना मेरी किस्मत है.

बंध कर और नहीं रहा जायेगा,
अब तो टूट कर बिखरने की चाहत है.

डूब रही मेरी कस्ती तेरे ही हाथों,
ये जानकर भी डूबना मेरी जरूरत है.

जितनी तुझे मुझसे नफरत है,
तेरी उतनी ही मुझे जरुरत है|

शनिवार, सितंबर 03, 2011

क्यों इंसां समझ पाए न इंसां के पीर को

ये    बारिश    का   पानी   है   या  आँखों   की  नमी   है,
रोया      है    आसमां,  और     भीगी         ज़मीं      है .

समझ   जाता   है  बादल   कैसे     धरा   की  पीर   को,
क्यों   इंसां   समझ न     पाए    इंसां      के   पीर   को.

कोई     फ़र्क़     नहीं आया    मौसम    की अंगड़ाई  में,
न   जेठ   की    तपती    धूप   में ,  न हवा    पुरवाई में.

बादल    के  गर्ज    में  बिजली      साथ    निभाती   है,
रोता   है   आसमां,         ज़मीं     भीग       जाती   है.

हटता    जा रहा    इंसां   क्यों अपने   फ़र्ज़ के राहों   से,
काट   रहा  अपनी    हथेली    ख़ुद    अपनी   बांहों   से.

मुड़कर    देखें गर हम पीछे,  कौन सा  बंधन तोड़  आये ,
जो भी मिली  विरासत  में , उसे  भौतिकता में छोड़ आये.

एक घर  के        मातम    में     सारा  गाँव    रोता   था,
एक  फर्द के दर्द-ओ -ग़म   में   सब      साथ    होता  था .

साथ        होकर     भी    हैं     लोग   अकेले      आज,
इस   कमरे से     उस  कमरे    तक जाये   ना  आवाज़.

करते    जा रहे    ख़ुद    ही भूल कहते समय का फेर है,
रोक   लो क़दम  फ़ना   से   पहले   हुई अभी ना देर है.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "







गुरुवार, सितंबर 01, 2011

शीर्षक ( भारत के आजादी के बाद भारतीय नारी का सफ़र क्या पाया क्या खोया ? (१९४७ से २०११ तक )

भारत के आजादी के बाद भारतीय नारी का सफ़र क्या पाया क्या खोया ? (1947 से 2011 तक )

कृपया इस लेख पर अपनी राय से अवगत कराएँ आपकी राय मेरे लिए कीमती है ......इसमें यदि कोई बात सहमती अह्समती की है तो जरुर बताएं .......


हिन्दुस्तान को आजाद कराने में जिन स्वतन्त्रता सेनानियों ने संघर्ष किया
उनमे वीरों के साथ वीरांगनाएँ भी थीं जिन्होंने कदम से कदम मिला कर अपना
साथ दिया जान तक न्योछावर कर दी | गुलामी की बेड़ियाँ काटने में भारतीय
नारियों ने भी पुरुषों के साथ अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
स्वतंत्र होने से ज्यों ज्यों माँ भारती के रूप लावण्यता में बढ़ोतरी
होती गयी उसी तरह उसकी गोद में पैदा हुई बालिकाओं को भी स्वतन्त्रता के
अधिकार मिलने लगे, धीरे धीरे शुरू हुआ नारी शिक्षा पर जोर जिसका
प्रभाव देश के हर कोने में पड़ने लगा | और इसकी नीव सन 1916 से ही पड़
चुकी थी , इस समय दिल्ली में लेडी हार्डिंग कॉलेज की स्थापना हुई तथा
श्री डी.के. कर्वे ने भारतीय नारियों के लिए एक विश्वविद्यालय की
स्थापना की जिसमे सबसे अधिक धन मुंबई प्रान्त के एक व्यापारी से मिलने के
कारण उसकी माँ के नाम से विश्व विद्यालय का नाम श्रीमती नाथी बाई थैकरसी
यूनिवर्सिटी की स्थापना की | इसी समय से मुस्लिम नारियों ने भी उच्च
शिक्षा में प्रवेश शुरू किया, 1946- 47 में प्राइमरी स्कूल से लेकर
विश्वविद्यालय तक की कक्षाओं में अध्ययन करनेवाली छात्रों की कुल संख्या
41,56,742 हो गयी| भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् यद्धपि नारी शिक्षा
में पहले की अपेक्षा बहुत प्रगति हुई तथापि अन्य पाश्चात्य देशों की
समानता वह नहीं कर सकी |नारी शिक्षा में प्राविधिक, व्यावसायिक, नृत्य
संगीतकी शिक्षा में विशेष प्रगति हुई | स्वतन्त्रता के 10 वर्ष के बाद
नारी का प्रवेश शिक्षा के हर क्षेत्र में होने लगा | स्त्रियाँ उच्च
शिक्षा प्राप्त कर अध्यापन, चिकित्सा कार्य ,कार्यालयों में ही अधिकतर
काम करने लगीं. | परन्तु ये विकास सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ज्यादा दिखाई
दिया , ग्रामीण क्षेत्र में तो बेटियों का हाल वही पुराना रहा , उन्हें
समुचित पढने की व्यवस्था ना देकर घरेलु कार्यों में लगाना और व्यस्क होने
से पहले ही विवाह कर एक नहीं कई जिम्मेवारियों से बांधा जाता रहा |
परन्तु जैसे जैसे देश में विकास की संभावनाएं बढ़ी संचार साधन , रेडियो
,टेलीविजन, फिल्मे मिडिया जगत से रुब रु होने के बाद समाज में कुछ धीरे
धीरे ये बदलाव ग्रामीण क्षेत्रों में भी आने लगे ,अब लड़कियां सिर्फ घरों
में कैद ना होकर बाहर निकलने लगी पढने के लिए , उनका आत्मविश्वास और कुछ
कर दिखाने की लालसा ने उन्हें ऊँची उड़न भर आसमां तक को छूने का मौका
दिया जिसके कई उदाहरण हैं भारतीय महिला का पायलट होना , विमान परिचारिका
के रूप में सेवा देना | एक के बढ़ते कदम कई के लिए मार्गदर्शन का काम
करते हैं और भारत के महिलाओं के लिए आगे बढ़ने का रास्ता ख़ुद महिलाओं ने
ही खोला अपने लगन और आत्मविश्वास से आज भारत के उच्च पदों पर कितनी
महिलाएं आसीन हैं, हर क्षेत्र में वो पुरुषों के साथ कदम मिला कर कार्य
कर रहीं हैं, उन्ही में से कई महिलाएं हैं जो आई. ए . एस , हैं ज्ञानपीठ
पुरस्कार सम्मानित ,हैं अन्तरिक्ष में जा चुकी हैं, मुख्य चुनाव
आयुक्त रह चुकी हैं. ओलम्पिक खेलों में सिनेमा में , हर क्षेत्रों में
इनका कदम किरण वेदी, लता मंगेशकर, इंदिरा गाँधी, सानिया मिर्ज़ा,
कल्पना चावला. प्रमुख भारतीय नारी की गिनती में आती हैं. कुछ और भी हैं
जो महिलाओं में अग्रणी हैं | ऐसे सामाजिक मानसिकता मध्यवर्ग में इतनी
संकुचित रही है कि एक महिला का घर से बाहर जा कर काम करना नीचा समझा जाता
रहा है. परम्परागत रूप से मध्यवर्ग में नारी का स्थान सिर्फ बच्चे पैदा
करना उनको पालना घरेलु कार्यों को करना तक ही समझा जाता था ,उनका उच्च
शिक्षा तक पहुंचना दूर कि बात सोंचना भी लोग गलत समझते थे, कई माता पिता
ऐसे थे जो बेटियों को हिसाब किताब तक कि पढाई सीखा कर साफ कह देते थे
क्या करना है बेटियों को पढ़ा कर क्या ससुराल जाकर नौकरी करना है इसे आखिर
चूल्हे और बच्चे ही तो सँभालने हैं, पर अब नारी भूमिका में फर्क तो आया
है आज नारी घर व् बाहर दोनों भूमिका अच्छी तरह निभा रही है ,एक लड़की
पढ़ेगी तो पूरा घर पढ़ेगा समाज पढ़ेगा और फिर देश | कई लोग कहते हैं नारी
जागरण से नारी शिक्षा से नारियों कि स्थिति में काफी सुधार हुए हैं पर आज
भी ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी हालत वही हैं अशिक्षित होने के कारण वो
वही पुरातन परम्परों में जकड़ी अपने वही सदियों पुराने दिन जी रही , ना तो
आर्थिक रूप से संबल ना मानसिक रूप से , और जुल्म कि शिकार बन रही,
अन्धविश्वास, और ढकोसले सबसे बड़ी बुराई ग्रामीण महिलाओं कि है और जब तक
वो इस मानसिकता को नहीं बदलेंगी उनका शोषण होता रहेगा ,खास कर सारे नियम
कानून उन्होंने पति परिवार बच्चो से सम्बन्धित बना रखे हैं जिसमे कई तो
बेबुनियाद हैं जिनका कोई सरोकार नहीं जीवन से फिर भी हैं कि ढोए जा रही ,
जो नहीं मानती उन बातों को वो भी सुखी हैं अपने घर परिवार में, फिर ये
आडम्बर क्यों ?? महिला जितनी शिक्षित रहेगी उसके मनसिकता का विकास उतना
ही अधिक होगा, प्रगति तो हो रहे महिलाएं विकास कर रही पर सम्पूर्ण नारी
का विकास हो चूका है यदि ये समझें हम तो गलत है क्योंकि , आज भी आधी
आबादी महिलाओं कि दर्द, घुटन ,और जुल्म पिछड़ेपन में गुजर रहे |जो पढ़ी
लिखी हैं वो तो आर्थिक रूप से कहीं ना कही मजबूत हैं और उन पर जुल्म भी
कम होते हैं पति परिवार ऐसी महिलायों पर जुल्म करते भी हो पर कम .
क्योंकि वो शिक्षित होने के कारण अपने अधिकार को समझती है और उसके लिए
मुँह भी खोलती है , आज का जो समाज का स्वरूप है पुरुष प्रधान, वो
सिन्धुघाटी सभ्यता में नहीं था सिन्धुघाटी सभ्यता में मात्रिस्त्तात्मक
समाज था, नारी ही समाज में सर्वेसर्वा थी,
प्राचीन भारत में महिलाएं काफी उन्नत व् सुदृढ़ थीं, ऋग्वेद में नववधू को
" सम्राज्ञी श्व्सुरे भव" का आशीर्वाद मिलता था तुम स्वसुर के घर कि
स्वामिनी बनो " समाज में पुत्र का महत्व था, पर पुत्रियों कि भी खूब
महता थी, स्व्प्नावास्व्द्तम में राजा पुत्री जन्म पर प्रसन्न होकर
महारानी से मिलने जाते हैं| मनु ने भी बेटी के लिए सम्पति में चौथा
हिस्सा का विधान किया उपनिषद काल में भी गार्गी और मैत्रयी का उल्लेख है,
प्राचीन काल में भी सहशिक्षा व्यापक रूप से दिखती है, लव कुश के साथ
आत्रेयी पढ़ती थी | उपनिषद्काल में नारी भी सैनिक शिक्षा लेती थी |
मध्यकाल में नारी का सामाजिक हालात बदतर होता गया जो आज तक व्याप्त है |
देवी कही जाने वाली नारी आज पुरुषों के जुल्म और सभ्य समाज के आडंबर से
अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ रही ,आज पाखंडी व् आडम्बरी समाज जो
मानव कि जननी है उसे जड़ से उखाड़ कर फेंक रहा | बेटियों को पैदा होने से
पहले ही मार रहे | बेटी को पराया माननेवाले उसे कभी ह्रदय से लगा कर
देखें ,बेटी का शोषण सबसे पहले घर से शुरू होता है फिर ये बीज धीरे धीरे
सारे समाज में फैलता जाता है | बेटे बेटी के खान पान से लेकर शिक्षा में
भेदभाव अब भी व्याप्त है यदि बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाकर उन्हें अपने
पैरों पर आर्थिक रूप से खड़े होने के लिए हर माँ बाप सहायता करेंगे तो
जरुर बेटियों का शोषण होना कम हो जायेगा | आज जन्म से पहले लिंग परिक्षण
कर कन्या भ्रूण को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जा रहा |
पित्रिस्तातामक मानसिकता और बालकों को ज्यादा वरीयता देना ही इस
कुकृत्य को जन्म दे रहा आज समृद्ध राज्यों में बालिका भ्रूण हत्या इस कदर
बढ़ गया है जो बालको के अनुपात में चिंतनीय विषय बन गया है इस पर रोकथाम
नहीं कि गयी तो जिस वंश को बढ़ाने के अंधे सोंच में लोग बालिकाओं कि
हत्या करते जा रहे आनेवाले समय में वही अपने वंश के नष्ट होने पर आंसू
बहायेंगे | लड़के यदि बीज हैं तो लड़की धरा है धरा नहीं रही तो बीज कहाँ
पनप पायेगा | ये गन्दी मानसिकता अधिकांश पढ़े लिखे तबको में ज्यादा आ गयी
है | एक तरफ एक देवी को मिटाते जा रहे और दूसरी तरफ मंदिरों में उसी
दूसरी देवी रूप से लक्ष्मी , के लिए शक्ति के लिए ,विद्या के लिए,
गिडगिडा कर भीख मांगते नज़र आते हैं | “यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते
तत्र देवता” अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते
हैं .... पर ये बात अब सिर्फ किताबों और पुरानो में रह गयी , आज नारी कि
पूजा होती है पर भोग और विलास का साधन के रूप में ,आज अधिकांश पुरुष
दूसरी स्त्रियों पर ज्यादा अपनी प्यास देखता है उसका स्पर्श चाहता है ,
उसके आँखों में नारी के जिस्म के लिए भूख कि लाली दौड़ती नजर आती है नारी
का परिधान चाहे कैसा भी हो वो अर्धनग्न है या सर से पांव तलक ढकी हुई
लोलुप निगाहें उसके अंग अंग को लालची निगाहों से नापते हैं और मन में काम
कि आग जाग गयी तो पूरी कोशिश करता है उसे हासिल करने कि ,यहाँ हासिल
का मतलब अपनी अर्धांगिनी बनाना नहीं बस उसके जिस्म को नोचना और अपनी काम
कि आग को शांत करना हर रोज कितनी मासूम बलात्कार कि शिकार होती हैं, और
उसके तन के साथ साथ उसके मन का ,आत्मा का भी बलात्कार कर दिया जाता है
|अपना सबकुछ लुटानेवाली को ही घर ,और समाज दोषी ठहराता है , और लुटनेवाला
सीना तान कर घूमता है , आज कानून व्यवस्था , बने हैं नारी के उत्थान के
लिए कई कदम उठाये गए हैं फिर भी हर रोज़ नारी नए नए जुल्म का शिकार हो
रही ,बाहर कि बात को छोड़ दें , कहीं दहेज़ ना लाने से या कम लाने से
बहू मारी जा रही , कहीं ख़ुद पति पत्नी को सता रहा | , घर में भी कहाँ
सुरक्षित है नारी , किसी भाई ने बहन के साथ, तो किसी पिता ने बेटी के साथ
,किसी देवर ने भाभी के साथ जेठ ने ससुर ने आये दिन घटनाएँ सुनने को मिलते
हैं | कितनी नारियां है जो अपने ही परिवार से सतायी हुई हैं पर अपनी
बदनामी के डर से मुँह नहीं खोलती ,और यदि चाहे भी तो घर के दबाव के कारण
जुबा सी लेती हैं | आज धीरे धीरे नारी स्वतंत्र हो रही अपने पैरों पर
खड़ी हो रही , अपना अस्तित्व पहचान रही , और कई मामलों में पुरुषों से
आगे हैं और कितनी जगहों पर इसी विषम दृष्टि के कारण कुंठित मानसिकता वाले
पुरुष नारी पर उत्पीडन करते हैं , यदि समाज कि ये मानसिकता है कि नारी
घर में नहीं बाहर असुरक्षित है तो ये धारणा उनका झूठा घमंड को बनाये
रखने के लिए है जो ये नहीं चाहते कि उनसे जूडी स्त्री स्वावलंबी हो
आर्थिक रूप से अपने को मजबूत कर सके | घर से बाहर हुए जुल्म को वो आसानी
से बता पाती है आवाज़ उठाती है समुचित कारवाही के लिए , पर नारी घर
में सबसे ज्यादा असुरक्षित है क्योंकि वो घर में हुए जुल्म को अपनी और
परिवार के झूठे इज्ज़त कि डर से बाहर नहीं खोलती , इसमें नारी का कहाँ
दोष है , दोष है तो पुरुषों कि गन्दी मानसिकता पर, और जो महिलाएं इस
कुकृत्य में शामिल होती हैं थोड़े लालच के कारण वो ये भी नहीं जानती उनके
एक घिनौने काम से पूरी जाति बदनाम होती है | जैसे सास बनकर बहू पर जुल्म
, पुत्र की माँ बनने कि ललक में पुत्री को कोख में ही मार देने में एक
बार भी नहीं हिचकती ये नारियां कि मै भी एक दिन बेटी थी आज माँ हूँ,
कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो बेबाकी से कहती हैं मुझे बेटी नहीं बेटा ही
चाहिए , यदि ये मानसिकता नहीं बदलेगी समाज कि तो मानव का अस्तित्व मिटने
में देर नहीं...........आज़ादी के बाद से अब तक नारी ने काफी प्रगति कि है
धीरे धीरे उन्हें पढने से लेकर अपने पैरों में खड़े होने के आधार मिले ,
पर अभी भी उसे पूर्ण रूप से आज़ादी नहीं मिली अपनी इच्छा से जीने कि आज़ादी
मन पसंद वर चुनने कि आज़ादी, और अपनी इच्छा से बिना किसी खौफ के किसी भी
जगह आने जाने कि आज़ादी | समय ने धीरे धीरे नारी के जीवन को और कठोर बना
दिया जहाँ उसे मिटाने कि पूरी तैयारी कर ली गयी है ... यदि आज मानसिकता
नहीं बदले तो एक दिन ये त्यागशील ,ममतामयी, नारियां प्रलय बन कर फूट
पड़ेंगी जिससे संहार निश्चित है.......आज जिन पुरुषों को स्त्री कि
अहमियत नहीं मालूम उन्हें जरुरत है वेदों और शास्त्रों का पठन करना
क्योंकि वहा नारी को भगवान् का दर्जा दिया गया है |

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
बोकारो थर्मल (झारखण्ड )

" लेखक के विचारों से लोकसंघर्ष सहमत नहीं है। " मेरे इस लेख में कोई ऐसी बात है जिसमे असहमति प्रकट की जाये यदि हाँ  to जानने की मेरी इच्छा भी है और अधिकार भी ...


सोमवार, अगस्त 29, 2011

आओ मिलकर क्यों ना तुम सागर हो जाओ,

ये अंश लिखने से पहले मन में बहुत से ख्यालात आये नारियों की आज
भी सामाजिक सिथित दयनीय देख कर मन कुंठा से भर गया जब कुछ नारियों के
मुंह से सुनी उनकी व्यथा तो सारा आक्रोश उन्ही पर आता है क्योंकि ख़ुद वो
कहती हैं हम क्या करें औरत जो ठहरे ..........

...

शीर्षक   " आओ मिलकर क्यों ना तुम सागर हो जाओ "

नारी की त्याग, शील, और ममता ने नारी को एक ऊँचा स्थान दिया ,जिसे
मनीषियों ने कवियों ने अपने अपने शब्दों में कहीं  सराहा और उसे कहीं
देवों  सा स्थान दिया , तो कहीं उसके आंसुओं  को , बेबसी को उसकी कमजोरी
समझ कर लाचार  अबला नारी तक की संज्ञा दे दी |
." यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता " .   "नारी तेरी यही
कहानी...छाती में है दूध आँखों में है पानी " .....कभी  " नारी तुम केवल
श्रद्धा हो "क्या किसी भी कवियों ने लिखी  उसकी मानसिक पीड़ा को |
 बार बार त्यागमयी, सहनशील  और शांत कह कह कर नारी की शक्ति को कमजोर
किया जाता रहा है, वो त्यागमयी है क्योंकि वो अपनों की खुशियों में लूट
कर भी विजेता है. वो सहनशील है क्योंकि धरा की तरह है,  शांत  रह कर वो
कई कलह को विष की तरह पी जाती है .बेकार का बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहती,
घर की सुख शांति के लिए वो शांत रह जाती है क्योंकि वो पुरुषों से ज्यादा
विवेकशील है, पर इन्ही गुणों को  कतिपय  लोग    कतिपय   कारणों से नारी
की शक्ति को कमजोर समझने लगे और समाज में नारी का स्थान धीर धीरे कुचलते
हुए पूरी तरह दमित करने का प्रयास करने लगे जिससे समाज में हर गलत
,वाहियात और जितने भी पाबंदियों वाले नियम कानून समाज ने बनाये वो लागू
हो गए नारी पर | जब नारियों ने बार बार हो रहे अत्याचार पर विरोध कर
विद्रोह अपनाने शुरू किये तो समाज के ठेकेदारों ने उन्हें लज्जित करना
शुरू कर दिया . और कितनो ने तो घिनौनी हरकत की अंतिम सीमा भी पार कर दी |
शुरुआती  दौर पर कुछ कम ही नारियों में ये साहस था की वो समाज के इस गलत
नियम के विरुद्ध आवाज उठाये ,पर जिन्होंने कोशिश की उन्हें कठिन तौर पर
मानसिक पीड़ा भी झेलनी पड़ी , अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को वो गलत जानकार
भी चुपचाप अपना भाग्य समझकर सहती आई है | यहीं  पर उसने पहली गलती की
क्योंकि  अत्याचार करनेवाले की तरह अत्याचार सहनेवाला भी दोषी है |

" यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता " .   "नारी तेरी यही
कहानी...छाती में है दूध आँखों में है पानी " .....कभी  " नारी तुम केवल
श्रद्धा हो "
ये सारे प्रसंग केवल नारी को उपरी संतोष देते हैं उसकी मानसिक पीड़ा को
क्या किसी भी कवियों ने लिखी मनीषियों ने सोंचा भी ना होगा जिस नारी की
जिस शक्ति की  वो गुणगान कर रहे  हैं , एक दिन उन्हें जिन्दा जलाया जायगा
, कभी सती होने के नाम पर , कभी दहेज़ के नाम पर ,कभी पैदा होने से पहले
ही मार कर |


 जब अर्धागिनी का मतलब ही  होता है आधा, आधा.
कर्मो में,अधिकारों में क्यों  नारी को कम मिले पुरुषों को  ज्यादा.
वो सारे झूठे बंधन के डोर को ,तोड़ने पर हो जाओ तुम  आमादा,
 "रजनी नैय्यर मल्होत्रा  "


वो कोमल है फूलों  के जैसे, वो चंचल है नदियों के जैसे , सहनशील है  धरा
के जैसे ,वो भोली है मूरत के जैसे,  शांत है समुद्र के जैसे , समुद्र में
लहरों के आने से तूफान का खतरा होता है. जिस दिन ये अहसास हो जायेगा
विश्व की हर  नारी को अपना अधिकार और सम्मान मांगना नहीं होगा वो ख़ुद पा
लेगी ,

" आओ मिलकर क्यों ना तुम सागर हो जाओ ,
 कब तक बहती रहोगी नदी नालो की तरह. " रजनी  नैय्यर मल्होत्रा


मरहम की जरुरत नहीं पड़ती जहाँ एक सी पीड़ा हो,
भर जाता है वो ज़ख्म बस छू जाने से  "रजनी नैय्यर मल्होत्रा  "

हर स्त्री के लिए  एक बात कहना चाहूंगी अपनी हक़ के लिए तुम भी जाग जाओ,
कुछ सीख लो देख चींटियों की कतारों से ....

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
बोकारो थर्मल  झारखण्ड "








गुरुवार, अगस्त 18, 2011

ये , रौशनी और दीया सलाई

   स्वास्थ्य खराब रहा ,  काफी दिनों बाद ब्लॉग  पर आई हूँ आपसभी के रचनाओं  से वंचित  रही .......... 


ये रौशनी , और  दीया  सलाई ,
सब मिलकर भी नहीं मिटा पाते हैं ,
अंतस के अंधकार को ,
अंतस  के बंद कमरों को ,
रोशन करने के लिए ,
नहीं पहुँच पाते चाह कर भी बाहरी उजाले ,
घेर रखी है एक चहारदीवारी सी ,
जिसमे झाँकने का एक झरोका भी नहीं ,
दरवाजे तो होते हैं पर बुलंद ,
जो खुलते हैं सिर्फ मन के दस्तक देने से ,
बाहरी रौशनी की छुअन या आघात,
नहीं हिला पाती है अंतस के दीवार को , 
किवाड़ को,
और  जरुरत ही  क्या है ?
दीया सलाई की.
अंतस के कमरे तो ख़ुद ही चेतना के जागने से ,
जल उठते हैं ,
और मन
नहा उठता है ,
रौशनी की जगमगाहट से .


रविवार, जुलाई 10, 2011

मारते जा रहे कोख में बेटी ,कैसे वंश बढाओगे ?

अक्ल पर पड़ा पत्थर को पिघलना तो होगा,
आज न कल समाज को बदलना तो होगा.

एक दिन में ही नहीं रचा  जाता इतिहास है,
आम इंसां ही कर्मो से बन जाता खास है.

आज मैं अकेली हूँ, कल हम बन जायेंगे,
आप भी जब एक एक अपने कदम बढ़ाएंगे.

बेटा बेटा करनेवालों ,पोते कहाँ से पाओगे ?
मारते जा रहे कोख में बेटी, कैसे वंश बढाओगे.?

उन्मादी इच्छाओं को यदि ,अपने अन्दर न मारेगा,
कौन तुम्हारे बेटों के बीज को, अपने अंदर धारेगा.

चाहते हो सिलसिला चलता रहे, तुम्हारे वंश के बेलों का,
अंत  करना होगा ,कोख में बेटी को मारनेवाले खेलों का .

सृष्टि की  रचना  का, ये एक विधान है,
फर्क नहीं बेटा बेटी में , दोनों एक समान हैं.


"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

शनिवार, जुलाई 02, 2011

बस तेरी तस्वीर से लिपटी, घर- बार अधूरा लगता है

जिस गीत पर झूमता था दिल ,
उस गीत का हर तार अधूरा लगता है,

बंध जाते थे नैन मेरे आईने से बरबस ,
तुम बिन ये रूप श्रृंगार अधूरा लगता है.

सजाते रहे ग्रीवा को असंख्य ज़ेवरात  से
तेरे मोती के हार बिन,अलंकार अधूरा लगता है.

राहें सूनी ,पनघट सूना, सूना सारा  संसार,
रूठे जबसे श्याम , राधा का प्यार अधूरा लगता है .

यादों से सराबोर मेरा ह्रदय चाक- चाक,
बस तेरी तस्वीर से लिपटी, घर- बार अधूरा लगता है.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

मंगलवार, जून 28, 2011

चश्म -ये- जहाँ की जो मिली चिलचिलाती धूप

" चश्म -ये- जहाँ की जो मिली चिलचिलाती धूप,
कसीर-ये-रफ़ाकत के वादे टूट जाते हैं,
आतिश -ए  - सहरा होती है सादिक ,
वो तो उड़ ही जाती है लगाकर परवाज ."


चश्म -ये- जहाँ -- जमाने की नज़र , कसीर-ये-रफ़ाक -- गहरे याराने , आतिशे - सहरा-- जंगल की आग ,सादिक - सच्ची बात, सच्चाई ,परवाज-- पंख.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

रविवार, जून 12, 2011

कर्तव्यों के बोझ तले, दोनों ही गिरवी हैं

देर से आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ आप सभी के ब्लॉग पर नहीं जा सकी ,काफी दिन तक ब्लॉग परिवार  से दूर रही परीक्षाएं चल रही थीं .अब धीरे धीरे सबके ब्लॉग पर जाना हो पायेगा ...



कर्तव्यों की डोर से बंधी सांसें,
हर पल धड़कती हैं ,
धड़कनों पर बंदिश नहीं
इंसान का,
समय चक्र के सुइयों के साथ,
वो बंधी है,
क़दम   भागते,दौड़ते,
हाथ भी मशीनों से,
हर पल देते हैं धड़कन का साथ,
क्योंकि,
कर्तव्यों के बोझ तले,
दोनों ही गिरवी हैं ,
चाहे वो जिस्म हो या धड़कन.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा."

सोमवार, मई 30, 2011

करीब आ कर भी मौत , ना कर सकी मेरा आलिंगन


"करीब आ कर भी मौत ,
ना कर सकी मेरा आलिंगन ,

किया जो मैंने आलिंगन तेरा ,
कोई और इस जहाँ से कुछ कर जायेगा.

छोड़ गयी मुझे देकर ये संदेशा,
शब्द तुझसे ही जिंदा हैं.

भाव मन का दर्पण, कवित कर्म को अर्पण,
खो गए जो शब्द, काव्य कहाँ बन पायेगा.

" रजनी"

शुक्रवार, मई 27, 2011

कहाँ जायेंगे बेघर, बिखर रहा आशियाना

कहाँ जायेंगे बेघर, बिखर रहा आशियाना .


झारखण्ड जब बिहार से अलग हुआ झारखण्ड के लोगों के मन में एक विश्वास की
लहर उठी , अपना राज्य अलग होने से संभावनाएं बढीं लोगों ने उत्साहित हो
कर  नए सरकार  का तथा नयी नीतियों का समर्थन किया .१० सालों में झारखण्ड
सचमे झाड़  का खंड बनकर रह गया .आम जनता इससे मिलनेवाली सुविधाओं से
वंचित रही , फिर भी प्यासे नैन सूखे बंजर भूमि की तरह विकास योजनाओं रूपी
बारिश का इंतजार करती  रही ,कभी तो आएगा बदलाव और हमारी सरकार कुछ तो
अच्छा करेगी जनता के लिए,पर ये सपना पूरा होना तो एक ख्वाब की बात, सरकार
की ये उजाड़ो की नीति ने  लोगों के आँखों से नींद छीन ली है, कहाँ
जायेंगे लोग बेघर होकर ? जब सर से आशियाना छीन जायेगा , जो लोग अपने
पुरखों के समय से रहते आ रहे जिनका जन्म  ,कर्म सब कुछ   इसी भूमि पर हुआ
, उन्हें अचानक उजड़ कर हट जाने का निर्देश ? ये कैसी सरकार है जिसे आवाम
के सुख दुःख का कोई ख्याल नहीं, उजड़ने से पहले कमसे कम कोई तो व्यवस्था
होती कोई भी राहत कैंप  या कोई भी ऐसी व्यवस्था जिसमे लोग सर छूपा सकें .
पर सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं, ये मनुष्य का घर   कोई चिड़िया का
घोसला तो नहीं इस पेड़ से उजड़े उस पेड़ में बस गए. फिर क्या अंतर रह
जायेगा इन्सान और जानवर में जब संवेदनाएं ही शून्य हो रही यहाँ |
निर्देशित भूमि पर चेतावनी देना फिर उन्हें कही अलग बसा कर  उजाड़ना ये
न्यायसंगत  होता ,न की कोर्ट का आदेश कह कर अपनी मनमानी तरीके का
इस्तेमाल ये सही तरीका नहीं रहा . . सरकारी जमीं पर बने आवास या उस पर
कब्ज़ा उतने समय से सरकार कहाँ गयी थी, अचानक से सौंदर्यीकरण की सूझी है ,
ये कैसा विकास जिसमे जान व् माल की क्षति की कीमत पर प्राप्त  हो ,एक दो
घर हों तो कोई बात भी , हर तरफ हर कोई रो रहा है कहाँ जायेंगे जो बिखर
गया आशियाना ?? सरकार को इतने बड़े कदम उठाने से पहले सोंचना चाहिए था,
समय देते लोगो को .ये तो तबाही का मंजर गुलामी के काल को भी मात दे रही
शर्मनाक हरकत है ये .जनता से सरकार बनती है न की सरकार से जनता . .

सारी गाज गरीबों पर  ही क्यों ?

जिनके  काले धन  विदेशों में पड़े हैं, जिन्होंने अवैध तरीके से कितने ही
जायदाद खड़े कर लिए  उनपर कोई कारवाही पहले क्यों नहीं क्यों मूक आदेश दे
रही सरकार उजड़ने से पहले बसने की व्यवस्था कर दे सरकार फिर अपनी नीति
चलाये ,क्या  होगा उन जगहों का उन सडकों का जब इस राज्य की धरती पर
गरीबों का खून बह जायेगा .वैसी नीतियों की निंदा ही होनी चाहए जो जनहित
में नहीं, राजा का पहला धर्म अपनी प्रजा की रक्षा करना न की अपने कोष  को
भरने के लिए जनता पर जोर की नीति लागु करना ,सरकार एक बार विचार कर इस
नीति को लागू करती तो ये   निंदनीय नीति नहीं बनती , लाखो लोग बेघर और
बेरोजगार होने से बच जायेंगे ............


"रजनी नैय्यर मल्होत्रा

बोकारो थर्मल .

रविवार, मई 22, 2011

मेरे प्रियतम


जिसे देखूं पल ,पल ख्वाबों में,
जिसे सोंचे मन ख्यालों में,
कोई और नहीं ,वो हो तुम.
मेरे प्रियतम ,प्रियतम, प्रियतम.

अश्कों के नीर बहायें हम,
नैनो के दीप जलाएं हम.
पथ आलोकित करने को तेरा,
 सलभ सा जलते हैं हम.

जिस लम्हा तुमको पाते हैं,
हम कितना ही हरसाते  हैं.
मन के कोमल बागों में,
कितने ही सुमन मुस्काते हैं.

सूखे अधरों की प्यास हो तुम,
मेरे जीने की आस हो तुम.
जिस मंजिल की मै राही हूँ,
वो मंजिल वही तलाश हो तुम.

जिसे देखूं पल ,पल ख्वाबों में,
जिसे सोंचे मन ख्यालों में,
कोई और नहीं ,वो हो तुम.
मेरे प्रियतम ,प्रियतम, प्रियतम.

भर गया अंक तरंगों से,
प्रफुलित है मन उमंगों से.
आरम्भ हुआ है दिवस मेरा,
तेरे प्रेम के नव रंगों से.

रंजों का तिमिर भगाया है,
उल्लास को मन में जगाया है.
मै काया हूँ,तू काया की साया है.

जिसे देखूं पल ,पल ख्वाबों में,
जिसे सोंचे मन ख्यालों में,
कोई और नहीं ,वो हो तुम.
मेरे प्रियतम ,प्रियतम, प्रियतम.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

रविवार, मई 08, 2011

प्यारी माँ

"माँ की आँचल में सारा आसमां समा जायें ,ऐसी विशाल हृदय व् कोमल भावन होती है माँ,
इनके आशीष से विपदा छू ना पाए, हर शय से बड़ी दुनिया में होती है माँ ,प्यारी माँ ."

बुधवार, मई 04, 2011

कुछ रचा जाये ऐसा इतिहास

सिंदूरी  सपने   नैनों   में   लिए   खड़ी  बावरी मुस्काए,
क़तरा-क़तरा सागर सा, लिए स्नेह का गागर ठहरा हो.

जीवन   एक संग्राम    बना, ये जलता मंज़र थम जाये,
न   तोड़   सके    कोई भेद ,ऐसा   भाईचारा  गहरा हो.

न   द्वेष   रचे, ना ज़ुल्म बसे, हर   मन गंगा हो जाये,
सुरभित हो ऐसे   संसार,  सुमन सा जीवन खिल जाये.

न कांटे   चुभें विष   वाणों के,न     तकरार  जगह पाए,
गर   आना हो   बन कर दस्तक, तो खुशहाली ही आये,

जो  चैन अमन   हम  खो बैठे ,वो वापस अपने घर आये,
कुछ रचा  जाये ऐसा इतिहास .जिसे विश्व  फिर दुहराए.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

"वो बुरी औरत" अगली कड़ी ..

...........
ये सिर्फ एक कहानी अथवा  लेख ही  नहीं भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई है
. यहाँ सदियों से  नारी को बंधन में रखा गया उस  पर  अनेकों बंदिशें
लगायी लगी.पुरातन काल से ही नारी को एक उपभोग की वस्तु मात्र माना जाता
रहा . जिसकी योग्यता बस इतनी मानी जाती थी पति की सेवा हर तरह से करना ,
परिवार के सदस्यों की देखभाल करना घर की जिम्मेवारियां निभाना,व् संतान
उत्पति करना ...पर घर के किसी महत्वपूर्ण फैसलों पर उसका कोई हस्तक्षेप
नहीं स्वीकारा जाता था, फैसला करना तो दूर की बात उसे इन तरह के मामलों
से तटस्थ ही रखा जाता था . और धीरे धीरे पुरुष प्रधान समाज में नारियों
के लिए परम्परा निर्वाह हेतु एक  परम्परा की तरह  ये सारे बंधन फतवे की
तरह जारी हो गए .परन्तु सवतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश की नारियों
की स्थितियां सुधरने लगी नारी शिक्षा पर बल दिया गया,स्त्रियाँ जागरूक
होने लगी अपने अधिकारों के मामले में ,उन्हें भी शिक्षित होने का गौरव
प्राप्त होने लगा ,पर जो नहीं शिक्षित हो पाई वो अपने बेटियों को बेटों
की तरह शिक्षा दिलाने लगी .शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, वह  मनुष्य
के मानसिकता को भी प्रभावित करती है . जैसा ज्ञान मिलेगा हमारा मस्तिष्क
भी वैसा ही सोंचेगा. अन्तत स्वतन्त्रता के बाद धीरे धीरे नारियों के बंधन
के सारे रास्ते खुलने लगे ,वो पहले से ज्यादा खुला वातावरण में पोषित
परिवेश  पाने लगी . बचपन से यौवन तक की दहलीज तो आराम से काटती है नारी
जबतक वो बाबुल के आँगन में रहती है ,परन्तु विवाह के बाद उसके जीने का
ढर्रा ही बदल जाता है हर किसी के साथ ये बंधन लागु नहीं होता  हो ,पर आज
भी अधिकांश नारियां बंधन में हैं .विवाह के बाद आये बदलाव में उसके पहनने
ओढने से लेकर ,हर रीति रिवाज परम्परा के नाम पर एक हंसती  खेलती जीवन के
अल्हड कंधे पर डाल दिया जाता है दुनिया भर के परम्परा रीति रिवाज
दुनियादारी का बोझ .एक नए रिश्ते  में बंध कर लड़की कितने ही रिश्तों में
बंध जाती है ,फिर हर रिश्तो  में कभी हंस कर कभी रो कर अपने बंधे होने का
वो ब्याज चुकाती है ....... जिस लड़की को मायके के माहौल सा मनचाहा ससुराल
का भी माहौल मिले उसे किस्मत की धनी कहा जाता है .जिसे सारे (ससुराल के )
सदस्य उस नयी लड़की को अपने रंग में ढाल लेते हैं या यों कहें नयी माहौल
में उस लड़की को कोई परेशानी नहीं होने देते व्यवस्थित होने देने में उसपर
कोई जुल्म नहीं होता ,यहाँ जुल्म की बात मै दो अर्थों में कर रही . "एक
होता है शारीरिक यातना" एक मानसिक यातना " जिसे व्यंग्य वाणों से काफी
लोग छोड़ते हैं ,कहते हैं तन के घाव उतने चोट नहीं करते  जितने गम्भीर चोट
मन के घाव करते हैं
अक्सर देखा जाता है एक स्त्री जब सास का ओहदा पा जाती है उसके मन में एक
क्रूर शासक का जन्म हो जाता है जो सारी जीवन अपनी बहु रूपी अपराधी पर
जुल्म करना न्याय समझती है अपने सास होने के नाते. पर ये बात वो यहाँ भूल
जाती है ,कि जब वो भी इस मोड़ पर थी उसे भी कितने समझौतों व् परेसानियों
से गुजरना पड़ा होगा अपनी जिम्मेवारियां निभाने में जब वो बहू कि भूमिका
निभा रही थी.  उससे भी कई त्रुटियाँ हुई होंगी . पर नहीं हो पाता बहुत सी
नारिया अपनी पिछली जीवन को भूल जाती हैं ,और लगती हैं बहू कि कमियां
निकालने और सबके सामने उसकी गलतियाँ गिनाने.  या तानो में या दो चार
सहेलियों , पड़ोसनो के बीच  बता कर बहू कि कमियों को . क्या ये जो अपनी
बहू के लिए करती हैं द्वेष का भाव क्या अपनी बेटी के लिए भी ऐसी विचार
रखती हैं ,??  शायद नहीं अपनी बेटी के लिए तो हर कोई घर परिवार ऐसा
मांगता है जो बेटी को पलकों पर बिठा कर रखें उसे कोई भी तकलीफ ना दे...
कोई ही ऐसी सास होती होगी जो अपनी बहू को भी बेटी के समान प्यार देती हो
. और घर के सदस्यों से भी ऐसा ही व्यवहार करने को कहती हो ...यदि आप किसी
की कमियों को चार लोगों के सामने ना ज़ाहिर  कर या उसे तानो की बौछार ना
कर उसे अकेले में समझा दें की तुमसे ये गलती हुई है आगे से ध्यान रखना
तो क्या उस इन्सान की नजरो में  आपकी इज्जत नहीं बढ़ जाएगी ? जरुर हो सकता
है ये जब आपकी बातों पर सामनेवाला अपना ध्यान लायेगा और निष्कर्ष में मन
से स्वीकार भी कर आकलन करेगा कि, मेरी कमियों पर तिल का ताड़ ना बना कर
,मुझे अकेले में बता कर लोगो की नजरो में मेरा मजाक बनने से मुझे बचा
लिया. ना आपका स्वाभिमान आहत हो ना सामनेवाले का .....ये हो सकता है यदि
ये समझ में आ जाये कि कोई भी पौधा किसी भी जगह से उखड़ कर किसी अन्य नयी
जगह पर लगने में उस जलवायु में लगने और पोषित होने में थोड़ा समय लेता है
,यदि दोनों जगह कि मिटटी एक सी रही तो वो आसानी से पनप जाता है,पर यदि
मिटटी में अथवा जलवायु में अंतर रहा तो पनपने में थोड़ा समय अवश्य लेगा ,
ऐसे में माली को थोड़ा सा मेहनत के साथ धैर्य करना चाहिए .ये पौधा खिलकर
माली का मान अवश्य बढ़ाएगा .यही बात निर्भर करता है कई वर्षों तक एक
परिवेश में रह रही लड़की का नयी परिवेश में आना बहू बन कर ,यहाँ सास को
माली कि तरह बन जाना चाहिए जिससे घर गृहस्थी कि गाड़ी आराम से चल सके ,पर
समझदारी कि कमियों कि वजह से कई घर बिखर जाते हैं, बहुत सी ऐसी बहुएँ हैं
जिनका या तो शोषण होता है या वो ज्यादतियां सहते सहते विद्रोह पर उतर
जाती है जब उसके सब्र का बांध  टूट जाता है. इन परिस्थितियों में एक
अच्छा खासा रिश्ता बिगड़ जाता है उसमे कडवाहट के फल लग जाते हैं ये कहानी
भी कुछ इसी तरह है .......

पढ़े "वो बुरी औरत "के  आगे के अंक में ..........

रविवार, अप्रैल 10, 2011

वो बुरी औरत

वक़्त के बदलने से परिवर्तन काफी आये , इन परिवर्तनों  के साथ नयी पीढ़ी की सोंच में भी बदलाव आते गए.
और इसी बदलाव के साथ एक अच्छी शुरुवात भी हुई ,और उसी बदलाव ने नारी के जीवन स्तर पर कुछ सुधार अवश्य किये, नारी भी अपनी इच्छा के मनचाही पढाई, मनचाही नौकरी के कारण घर से बाहर तक का सफ़र आसानी से तय करने लगी . पर एक जगह आज भी ऐसी है जहाँ अब तक काफी महिलाएं वही पुरानी विचारो की चादर में लिपटी लोगों की उसी  विष बातों से आहत होती है.  विवाहित महिलाएं  (खास तौर से बहू ) कुछ जगहों पर अपने घर परिवार में समाज में जलील  होती है  शब्दों के वाणों से , जब वो वर्षो से चली आ रही पुरानी परम्परा रूपी दकियानूसी जंजीरों को तोड़ना चाहती है . उन विचारो का विरोध करती है जो उसके हक में नहीं उन्हें मानने से इनकार करती है तो उस पर अनेको लांक्षण लगने लगते है "बुरी औरत है, बदचलन है  ,बदमाश  है न जाने और क्या क्या उसे सुनने पड़ते  हैं. इस पुरुष प्रधान समाज में आज भी पुरुषों को ज्यादा इज्ज़त  दी जाती है महिलायों से, शिक्षित हों या  अशिक्षित . यहाँ मै पति पुरुष की बात कर रही जिसके शान के सन्दर्भ में स्त्री  को क्या क्या पाठ पढाया जाता है पति का नाम लेकर क्यों बुलाती हो पति की उम्र कम होगी, पति के जूठे बर्तन में खाओ तुम्हारी सदगति इसी में है. पति की हर बात को सुनो और मानों चाहे उसका फैसला गलत क्यों न हो अपनी जुबान मत खोलो...... और सबसे ज्यादा ज्यादती की बात तो तब होती है जब कोई स्त्री पुरुष के द्वारा पीटी जाती है उस स्त्री की गलती हो या न हो बस अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए कितने पुरुष अपनी पत्नियों की बेबात ही पिटाई लगाते हैं .पुरुष चाहे एक थप्पड़  मारे या दस थप्पड़ उसे शान से मान दिया जाता है समाज में ,घर में खुद बड़ी बुजुर्ग  महिलायों के मुंह  से सुना जाता है औरत को मारते पिटते रहो तो वो काबू में रहेगी . पर ये बात भी सिर्फ बहू रूपी नारी के लिए इस्तेमाल करती हैं यदि किसी बात पर किसी बहू बेटे में लड़ाई हुई तो तपाक से ये शब्द इसे काबू में तब ही रख पाओगे जब इसकी धुलाई करोगे यानि की स्त्री का जन्म ही हुआ है जुल्म सहने के लिए ......और ये जुल्म  सिर्फ बहू के लिए ,बेटी के लिए कोई माँ नहीं कहती की दामाद भी बेटी को मारे ,बस बेटे को ये पाठ पढाया  जाता है बहू को पीटो काबू में रहेगी .और इसी तरह लड़ाई झगडे में किसी बात पर किसी पुरुष के मारने पर कोई स्त्री पलट कर हाथ छोड़ दे एक भी वार करे पलट  कर तो उस स्त्री का जीना हराम कर देते हैं लोग, आस पड़ोस घर बाहर हर जगह यही ढिंढोरा पिट दिया जाता है ,गन्दी औरत  है, बदचलन है,  पति की इज्ज़त नहीं करती पति को मारती है न जाने क्या क्या . आखिर पति है उसको हक है पत्नी की पिटाई करने का ,पत्नी का धर्म है पिटाई खाना वो चाहे मार कुटाई के दौरान चाँद से चेहरे पर नक्काशी खिंच से या हाथ पैर तोड़ दे मुंह  से आवाज भी मत निकालो बस पिटती रहो भगवान् जो हैं पति परमेश्वर हैं.. क्या स्त्री का मान समान नहीं ?? जब  पुरुष को दस थप्पड़ के बदले सिर्फ एक थप्पड़  मिल जाता है स्त्री के हाथों तो पुरुष के  मान सम्मान  को आघात लगता है क्यों ? क्योंकि वो पुरुष है दम्भी है ,क्या स्त्री गुणी नहीं सम्मानित नहीं. ?????? सर्व गुण सम्पन होने के बावजूद आज भी अधिकांश स्त्रियाँ पिटती हैं पुरूषों  के हाथों और इसकी जिम्मेवार सिर्फ स्त्री जाति ही है जो कभी माँ के रूप में कभी दादी के रूप में नानी चाची बन कर पुरुषो को सही संस्कार नहीं दे पाती ,उन्हें बस एक ही बात विरासत में आदिम काल से मिली है स्त्री का कोई वजूद नहीं पुरुष ही पुरुष है सभी जगह ,पर अफ़सोस ये सारी बातें हर स्त्री जाति के  उपर लागु नहीं है , आज तक कभी किसी बेटी के लिए कोई माँ नहीं  कहती उसकी बेटी  की ससुराल में दुखी हो बल्कि बेटी को तो हर बार मायके आगमन पर ये सिखाया जाता है ki   दामाद को कैसे अपने मुट्ठी   में रखो क्या करो क्या न करो जिससे वो बेटी की ही गुण गाये, पर यही बात बेटा बहू पर जताए तो (जोरू का गुलाम ) बीवी का गुलाम  मत बन, बहू की बात मत  मान  नहीं तो एक दिन अँगुलियों पर नचाएगी. .. और इसी डर से शुरू होता है  बहू रूपी नारी का हर जगह शोषण .......... कितने जगहों  पर बेकसूर स्त्री को भी पुरुष पूरी बात सुने बिना जाने बिना बस मार पिटाई कर देते हैं .जो स्त्री शांत है  या ये समझ कर जीती आ रही की भाग्य में ही पति की मार लिखी है ,पति परमेश्वर होता है उसकी जायज नाजायज हर बार मेरे लिए मान्य है,  वह तो हर दिन सब कुछ सहन कर सकती है ,पर जहा नारी स्वाभिमानी हो उसके अहम पर यही ठेंस लगती है तो उसका वो विरोध जरुर करती है और करेगी . जब विरोध में वो उतर जाये तो उसे कुल्टा, बदचलन ,गन्दी ,बुरी औरत और जैसी कितने नामों  से सुशोभित   किया जाता है ..... इसी दौर  से  कई नारी गुजर रही होंगी ......... आगे इसी से सम्बन्धित एक सत्य कहानी को उजागर करेगी मेरी अगली पोस्ट "
" वो बुरी औरत"  की अगली कड़ी .... में

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

बुधवार, अप्रैल 06, 2011

"स्वप्न मरते नहीं "



काव्य संग्रह "स्वप्न मरते नहीं " मेरी पहली  पुस्तक प्रकाशित होकर आ गयी है .

स्वपन मरते नहीं,
कुछ क्षीण हो जाते हैं,
हाँ आशान्वित होकर,
उस टूटे सपनो से,
अधीर होते हैं हम,
पर,
उस अधीरता में भी जो,
धीरज ना खोते हैं,
वो बिखर कर भी,
अपने मुट्ठी में,
अपने ख्वाबों का जहाँ ko,
हकीकत में,
साकार कर लेते हैं.
 
 
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

मंगलवार, अप्रैल 05, 2011

तुम्हारे बगैर

कई बार,
अनगिनत प्रश्न किये
प्रियतम ने,
प्रेयसी  से|
क्या वजूद है ?
हमदोनों  के बीच
जो बंधी डोर है
आत्मिक .शारीरिक, 
या फिर मन से ,
मन का बंधन ?
कुछ पल मौन
सुनती रही
अपने प्रीतम की
बातों को |
फिर कुछ क्षण
रुक कर कहा 
निष्प्राण थे,

मेरे 
आत्मा,तन और मन,
पर ,
तुम्हें   पाने के बाद
झंकृत हो गए हैं
मेरे रोम -रोम पुलकित होकर ।
तुम्हीं   कहो ?
क्या वजूद है मेरा,
तुम्हारे बग़ैर | 

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
 

शनिवार, मार्च 12, 2011

कर्म भाग्य बनाता है. बेटों का भी और बेटियों का भी.

एक वक़्त था
जब मेरे जन्म पर
तुमने कहा था 
कुल्क्छिनी
आते ही
भाई को खा गयी |
 माँ तेरी  ये बात 
मेरे बाल मन
में घर कर  गयी
मेरा बाल मन रहने लगा
अपराध बोध से ग्रस्त 
पलने लगे कुछ विचार , 
क्या करूँ ऐसा ?
जिससे तेरे मन से
मिटा सकूँ मैं 
वो विचार 
 कम कर सकूँ
तुम्हारे
मन के अवसाद को |
वक़्त गुजरते गए
ज़ख्म भी भरते गए
फिर आया
एक ऐसा वक़्त
जब तुमने ही कहा
बेटियां कहाँ पीछे हैं
बेटों से
वो तो दोनों कुलों  का
मान बढाती   हैं ।
माँ 
शायद तुम्हें  भी
अहसास हो गया
क़ि जन्म नहीं
कर्म भाग्य बनाता है 
बेटों का भी,
और बेटियों का भी ।
   
 " रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

सोमवार, मार्च 07, 2011

नारी तेरे रूप अनेक


महिला दिवस पर समस्त नारी जाति को हार्दिक शुभकामनायें .............

ये रचना मेरी प्रथम काव्य संग्रह "स्वप्न मरते नहीं " से ली है


नारी निभा रही है हर जिम्मेवारी,
कैद ना करे इन्हें घर की चहारदीवारी,
कंधे से कंधा मिलाकर,
कम की है इसने,
पुरुषों की जिम्मेवारी,
जीवनसाथी बनकर,
पूरी करती अपनी हिस्सेदारी,
कभी रूप सलोना प्यारा लगे,
रहे शांत समुंद्र सी न्यारी,
अगर जरुरत पड़ जाये ,
ये बन जाये चिंगारी,
कभी दूध का क़र्ज़ निभाने को,
कभी माँ,बहू, बहन का फ़र्ज़ निभाने को,
पल पल पीसी जाती रही नारी,
हर कदम इम्तिहान से गुजरी ,
फिर भी उफ़ ना मुख से निकली,
ये तो महानता है इसकी,
जो दिखती नहीं इसकी बेकरारी,
आधा रूप बदला इसने जो,
समाज का अक्स सुधारी,
तुलना करोगे किससे ?
हर कुछ छोटा पड़ जायेगा.
ममता की गहराई मापने में ,
सागर भी बौना खुद को पायेगा.
ये अनमोल तोहफा है,
जो कुदरत ने दी है प्यारी,
हर मोड पर फिर क्यों ?
बुरी नज़रों का करना पड़ता है ,
सामना इसे करारी.
ये क्यों भूल जाते हो ?
तुम्हें संसार में लानेवाली भी,
है एक नारी.
चुटकी भर सिंदूर को ,
मांग में सजाती है,
उसका मोल चुकाने को,
कभी कभी ,
जिन्दा भी जल जाती है नारी.
हर जीवन पर करती अहसान,
फिर भी ना पा सकी सम्मान.
नारी निभा रही है हर जिम्मेवारी,
कैद ना करे इन्हें घर की चहारदीवारी.

"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

धरा अम्बर एक हो गए

आकाश बरस  कर
निरभ्र हो जाता है, 
मिल जाता  है
उसके रुग्णता को
एक शांत एहसास |
घुमड़ते हुए
बादलों के रूप में
मचलते रहते हैं
उसके मन में भी 
असंख्य सवाल |
 धरा का स्पर्श
देता है उसे असीम धैर्य
बूंदें  पानी की
आकाश से आ
ज़मीं  पर
ऐसे मिल जाती हैं
मानो हो  एक सीमा रेखा
जिसके पाटने से
धरा- अम्बर एक हो गए |
 मनुज मन भी
जब व्यथित,भ्रमित 
बरसने की चाह में
हो जाता है  गुमराह
पाने को 
एक स्पर्श कांधे पर 
जिसपर टिककर
उसके मन का आकाश  भी
निरभ्र हो जाये  


 
 

सोमवार, फ़रवरी 21, 2011

मेरे शब्द ,मेरे विचार .

मेरे शब्द ,मेरे विचार .


जिस दिन ये भरम टूट जायेगा उस दिन हम भी बिखर जायेंगे तिनके के जैसे .
तो अच्छा है हम भी इसी भरम में खुश रहें , जिसमे दुनिया खुश रहती है|
"मेरे पास सब कुछ है "


अपनी गलतियों पर पर्दा डालने से अच्छा है उन्हें बखूबी स्वीकार कर सुधारा जाये |

एक के कदम  "हजारों के रास्ते बनते हैं " तो क्यों न हम  " हर रोज़ एक नयी राह  बनाएं |

जिस शक्ति (नारी ) की जयगाथा पुरानो में शोभ रही थी, 
आज अपनी ही कमजोरी से वो कहीं कहीं शक्तिहीन है (नारी) 

अपनी कमजोरी को और कमजोर न बना कर, उसे अपनी शक्ति बनाओ 
फिर    "तलवार भी तुम और  ढाल भी तुम"  |

सही अर्थ में पुरुष वही है जो अपने बल का प्रयोग असहायों के सहयोग के लिए करें,
न की निर्बल व् अबला पर बल आजमा कर |

कहते हैं आँसू  हमें कमजोर बनाते हैं, नहीं ये हमें और मजबूती प्रदान करते हैं अपने लक्ष्य को पाने की "|

हर राह आसान होगी "बस संकल्प पक्का होना चाहिए "

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा " 

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

विवाह के बारहवे वर्षगांठ पर

विवाह के बारहवे वर्षगांठ पर राजेश को ..........


तुम्हारे साथ लिए,
सात फेरे,
व् सात वचन ,
के साथ
बारह वर्ष ,
गुजर गए.
पर ,
सारे वचनों के मोल,
मैंने ही निभाए ,
तुमने तो,
 जो वक़्त बीते,
उन्हें निभाया नहीं,
बस गुजारा है.
फिर भी ,
ये कामना है ,
अब आनेवाला हर पल,
हमारे विवाह के ,
सात फेरों व्
सात वचनों की तरह,
पूरी मजबूती से  ,
गठबंधन की तरह ,
बंध जाये.
एक दुसरे के प्रति,
प्रेम, विश्वास ,
समर्पण के साथ.
जिस अग्नि को ,
साक्षी मानकर ,
हमने जीवनसाथी,
बन आजीवन ,
साथ निभाने की ,
कसमे उठायी थीं.
ये गठबंधन ,
किसी भी हालात में,
ना टूटे.
ना ही ,
क्रोध की अग्नि में ,
भस्म हो.
ये शिकायत  नहीं तुमसे,
तुम तो सदा ही ,
निन्यानबे के चक्कर में ,
पड़े रहे,
शायद हमारा फेरा ही ,
निन्यानबे का पड़ा.
क्योंकि ,
उस दिन ,(१८ -२-१९९९)
अठारह फरवरी उन्नीस सौ निन्यानबे था .
चाहती हूँ ऐसे रहना,
तेरे साथ,
जैसे गुलाब में उसकी खुशबू.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

बुधवार, फ़रवरी 16, 2011

जिसके घर में , कदम पड़ते ही

उसके
घर में   क़दम  पड़ते ही
मेरा धर्म भ्रष्ट हो गया
ये कह कर
वो स्नान को चली गयी |
उसने छुआ जिस  वस्तु को
उसमे गंगाजल डाल
कई बार धोती रही |
अचानक एक दिन
समाचार मिला
तेरा बेटा गिर पड़ा है
सड़कों पर |
वो बदहवास भागी,
तेज़ धूप और गर्मी के मारे
वो बेहोश हो गया था ,
उसने आनन् फानन में
दिया अपने पल्लू से हवा ...
तभी किसी ने कहा
इसे पानी पिलाओ
और,
जिसके घर में
क़दम  पड़ते ही
धर्म भ्रष्ट हो रहा था
आज उसी की हाथों से
पानी पीकर
उसका बेटा
नया  जीवन  पा गया |

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

शुक्रवार, फ़रवरी 11, 2011

१४ फरवरी वेलेंटाइंस डे’ प्रेम दिवस

युवा पीढ़ी  दौड़ रही प्रेम दिवस मनाने में,
पाश्चात्य के पीछे अपनी संस्कृति भुनाने में.

स्कूल कालेज बंद आज, पर भीड़ लगी उद्यानों में,
लगे क़तार  में खरीदारी  को फूलों के दुकानों में.

१४ फरवरी वेलेंटाइंस डे’ प्रेम दिवस,
 क्या कहें युवाओं, इसे सर दर्द या प्रेम रस.???

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

सोमवार, जनवरी 31, 2011

ये आईना

एक पुरुष
एक स्त्री को
भददी- भददी
गालियाँ  दे रहा था
और  निरंतर
उस स्त्री की
पिटाई कर रहा था |
कुछ लोग,
जिनमें  स्त्रियों की
संख्या   ज़्यादा    
 थी
पास से देखते
आपस में कहते रहे,
ये पति- पत्नी का
मामला है
हमें इससे क्या ?
ये  कुछ भी करें !
सभी
ये कह वहां से
खिसक गए ।
कुछ दिनों बाद
पत्नी,
पति को
अपने हाथों से
खिला रही थी
अपने घर के
 प्रांगन में ।
तभी,पड़ी
उनदोनों  पर
एक
पड़ोसन की नज़र ,
ये देख आसपास
चर्चे फ़ैल गए
कितने बेशर्म  हैं
ये लोग ,
क्या पति- पत्नी को
ऐसे रहा जाता है ?
ये  आईना है
हमारे सभ्य
समाज का
जिसमें
हम रहते हैं ।



"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"




शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

बेटी होना गुनाह है ?

बेटी माँ से :
बेटी होना गुनाह है ?
माँ ,
बस  तीन बातें याद रख .....
भगिनी ,
भोग,
भरण.
 तू इसी लिए
पैदा हुई है | 
 बेटी ने कहा
ये ठीक नहीं माँ
मुझे
ये बंधन  नहीं,
ख़ुद का
फैसला भी चाहिए,
जो मुझे
अपने रूप से जीने दे
माँ :
अच्छा होता
ये कुल कलंकिनी
पैदा ही ना लेती |
तू तो ,
नारी  जाति के ,
नाम पर
कलंक है
जो वर्षों से
चली आ रही
इस
मर्यादा को
तोड़ने पर
उतारू है |

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

मंगलवार, जनवरी 25, 2011

(फिर भी कहती हूँ जननी हूँ)

बालिका दिवस पर एक अजन्मी लड़की की व्यथा  (फिर भी कहती हूँ जननी हूँ)

जन्म लेकर क्या करूँ मै,
तुम्हारे इस संसार में.
क्या दे सकोगे ?
मुझे ख़ुद सा जीने का अधिकार,
अन्यथा करते रहोगे,
तमाम उम्र  ,
हर रिश्तों में मेरा व्यापार.
 हर साँस बस ,
घुट कर ही जीना ज़िन्दगी ,
तो,
अच्छा है मुझे ,
जन्म से पहले ही मार दो.
आ जाऊं इस संसार में तो ,
मांगूगी अपना अधिकार.
जब भी अधिकार के लिए ,
आवाज़ मैंने उठाई,
जन्मदाता ने ,
एक ही बात दुहराई.
क्यों पढ़ाया चार अक्षर इसे,
रहती ये भी अनपढ़,
ना दिखाती ये आँखें,
ना रहते ऐसे तेवर.
चुप्पी और सहनशीलता ही,
ऐ  लड़की तेरे ज़ेवर .
क्या तेरी माँ,दादी ने कभी ,
ऊँची आवाज़ लगायी,
किया किसी ने विरोध कभी ,
मर्दों के फैसले पर.
फिर क्यों तू ?
फैला रही अपने कटे हुए पर.
जब भी अधिकार के लिए ,
आवाज़ मैंने उठाई,
विरोध किया जब भी ,
किसी अनर्गल बातों का,
तो झट कह दिया जन्मदाता ने,
बेटी न  पैदा लेती,
या  पैदा लेते ही मर जाती.
इसके ऐसे  कर्म से तो ,
कुल की मर्यादा ना जाती |
फिर भी कहती हूँ जननी हूँ,
जन्म देने का ही नहीं,
इच्छित सांसो से ,
जीने का है अधिकार मुझे |
दे पाओ ये अधिकार,
 तो लाना इस संसार में,
आ जाऊं संसार में तो,
 मांगूंगी अपना अधिकार.

" रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

सोमवार, जनवरी 17, 2011

ख़ुशी हूँ मै.

चंचलता की मै मूरत हूँ,
लोग कहते हैं , मै खूबसूरत  हूँ.
बोलो कौन हूँ मै ?
ख़ुशी हूँ मै.

जिसके ज़िन्दगी में  ,
वो तो मालामाल है,
जिसके ज़िन्दगी से बाहर,
 वो तो कंगाल है.

हर कोई चाहता है,
मेरा  ज़िन्दगी में साथ.
तीखी जीवन में मैं मिठास हूँ,
सूखे अधरों की मै प्यास हूँ.
आसां नहीं,
हर ज़िन्दगी में मेरा आना,
क्योंकि,
ख़ुशी चीज़ ही है ,
मुश्किल से मिल पाना.

हर कोई जीवन में ,
मेरी तमन्ना रखता है,
भर जाये सागर  जीवन में,
ऐसी चाहत रखता है.
कोई तो मुझे पाकर,
सागर सा ज़िन्दगी जीता है,
जहाँ मै नही,
वो बूंद बूंद को रोता है,

मुझसे ही पूरी है ,
जीवन की कहानी,
बस जाऊं  मै जहाँ,
ना आये आँखों में ,
गम की पानी.

हर आँख की चाहत है ,
बस मेरे आंसू भरना.
चंचलता की मै मूरत हूँ,
लोग कहते हैं , मै खूबसूरत  हूँ.
बोलो कौन हूँ मै ?
ख़ुशी हूँ मै.

" रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

गुरुवार, जनवरी 06, 2011

कदम कदम पर बेबसी का शिकार ज़िन्दगी है

कुछ शाजिसों से होती शर्मशार ज़िन्दगी है,
कदम कदम पर बेबसी का शिकार ज़िन्दगी  है.

साथ मिला कदम से कदम ,जिनके हम चलते रहे,
वो ही छूपा कर खंजर, हमें बन रहनुमा छलते रहे.

एक  चेहरे पर कितने ही  चेहरे बदले आज इन्सान ने,
हैवान है या आदमी  शक्ल आये ना पहचान में.

बने फिरते हैं योद्धा तो आयें सामने  मैदान में,
छूप कर वार करना आदत  कायर इन्सान में.

आज हम पर दागी हैं अंगुलियाँ , तो शेर ना बन जायेंगे,
खुद की ही निगाहों में गिर, वो शर्म से मर जायेंगे.

किस हद तक आज गिर रहा इस दौड़ में जमाना  है ,
सच्चाई दम तोड़ने लगी हर कोई झूठ का दीवाना है.

"   रजनी नैय्यर मल्होत्रा "