शनिवार, मार्च 12, 2011

कर्म भाग्य बनाता है. बेटों का भी और बेटियों का भी.

एक वक़्त था
जब मेरे जन्म पर
तुमने कहा था 
कुल्क्छिनी
आते ही
भाई को खा गयी |
 माँ तेरी  ये बात 
मेरे बाल मन
में घर कर  गयी
मेरा बाल मन रहने लगा
अपराध बोध से ग्रस्त 
पलने लगे कुछ विचार , 
क्या करूँ ऐसा ?
जिससे तेरे मन से
मिटा सकूँ मैं 
वो विचार 
 कम कर सकूँ
तुम्हारे
मन के अवसाद को |
वक़्त गुजरते गए
ज़ख्म भी भरते गए
फिर आया
एक ऐसा वक़्त
जब तुमने ही कहा
बेटियां कहाँ पीछे हैं
बेटों से
वो तो दोनों कुलों  का
मान बढाती   हैं ।
माँ 
शायद तुम्हें  भी
अहसास हो गया
क़ि जन्म नहीं
कर्म भाग्य बनाता है 
बेटों का भी,
और बेटियों का भी ।
   
 " रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

सोमवार, मार्च 07, 2011

नारी तेरे रूप अनेक


महिला दिवस पर समस्त नारी जाति को हार्दिक शुभकामनायें .............

ये रचना मेरी प्रथम काव्य संग्रह "स्वप्न मरते नहीं " से ली है


नारी निभा रही है हर जिम्मेवारी,
कैद ना करे इन्हें घर की चहारदीवारी,
कंधे से कंधा मिलाकर,
कम की है इसने,
पुरुषों की जिम्मेवारी,
जीवनसाथी बनकर,
पूरी करती अपनी हिस्सेदारी,
कभी रूप सलोना प्यारा लगे,
रहे शांत समुंद्र सी न्यारी,
अगर जरुरत पड़ जाये ,
ये बन जाये चिंगारी,
कभी दूध का क़र्ज़ निभाने को,
कभी माँ,बहू, बहन का फ़र्ज़ निभाने को,
पल पल पीसी जाती रही नारी,
हर कदम इम्तिहान से गुजरी ,
फिर भी उफ़ ना मुख से निकली,
ये तो महानता है इसकी,
जो दिखती नहीं इसकी बेकरारी,
आधा रूप बदला इसने जो,
समाज का अक्स सुधारी,
तुलना करोगे किससे ?
हर कुछ छोटा पड़ जायेगा.
ममता की गहराई मापने में ,
सागर भी बौना खुद को पायेगा.
ये अनमोल तोहफा है,
जो कुदरत ने दी है प्यारी,
हर मोड पर फिर क्यों ?
बुरी नज़रों का करना पड़ता है ,
सामना इसे करारी.
ये क्यों भूल जाते हो ?
तुम्हें संसार में लानेवाली भी,
है एक नारी.
चुटकी भर सिंदूर को ,
मांग में सजाती है,
उसका मोल चुकाने को,
कभी कभी ,
जिन्दा भी जल जाती है नारी.
हर जीवन पर करती अहसान,
फिर भी ना पा सकी सम्मान.
नारी निभा रही है हर जिम्मेवारी,
कैद ना करे इन्हें घर की चहारदीवारी.

"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

धरा अम्बर एक हो गए

आकाश बरस  कर
निरभ्र हो जाता है, 
मिल जाता  है
उसके रुग्णता को
एक शांत एहसास |
घुमड़ते हुए
बादलों के रूप में
मचलते रहते हैं
उसके मन में भी 
असंख्य सवाल |
 धरा का स्पर्श
देता है उसे असीम धैर्य
बूंदें  पानी की
आकाश से आ
ज़मीं  पर
ऐसे मिल जाती हैं
मानो हो  एक सीमा रेखा
जिसके पाटने से
धरा- अम्बर एक हो गए |
 मनुज मन भी
जब व्यथित,भ्रमित 
बरसने की चाह में
हो जाता है  गुमराह
पाने को 
एक स्पर्श कांधे पर 
जिसपर टिककर
उसके मन का आकाश  भी
निरभ्र हो जाये