मंगलवार, जून 29, 2010

गुफ्तगू से नहीं,लरजते अधर, सितम बोलते हैं,


गुफ्तगू से नहीं,लरज़ते   अधर, सितम बोलते हैं,
भरम है उन्हें ,कि हम कम बोलते हैं.

निगाहें हँसती भी मेरी, लगे नम  बोलते हैं,
भरम है उन्हें ,कि हम कम बोलते हैं.

किसी के हुनर को क़लम ,किसी के क़दम  बोलते हैं,
कोई ले  अल्फ़ाज़ों  का सहारा,किसी के ग़म  बोलते हैं.

गुफ्तगू से नहीं,लरज़ते अधर, सितम बोलते हैं,
भरम है उन्हें ,कि हम कम बोलते हैं.

जो तल्ख़ हों मिज़ाज  से,उनके अहम बोलते हैं,
तुम भी कहोगे मुख्तारी से, जो हम बोलते हैं.

नादाँ हैं जो दिलनशीं को, संगदिल सनम बोलते हैं.
शरारा   होता है   जिनकी  तहरीर में ,उनके दम बोलते हैं.

गुफ्तगू से नहीं,लरज़ते अधर, सितम बोलते हैं,
भरम है उन्हें ,कि हम कम बोलते हैं.

"रजनी "