रविवार, जुलाई 10, 2011

मारते जा रहे कोख में बेटी ,कैसे वंश बढाओगे ?

अक्ल पर पड़ा पत्थर को पिघलना तो होगा,
आज न कल समाज को बदलना तो होगा.

एक दिन में ही नहीं रचा  जाता इतिहास है,
आम इंसां ही कर्मो से बन जाता खास है.

आज मैं अकेली हूँ, कल हम बन जायेंगे,
आप भी जब एक एक अपने कदम बढ़ाएंगे.

बेटा बेटा करनेवालों ,पोते कहाँ से पाओगे ?
मारते जा रहे कोख में बेटी, कैसे वंश बढाओगे.?

उन्मादी इच्छाओं को यदि ,अपने अन्दर न मारेगा,
कौन तुम्हारे बेटों के बीज को, अपने अंदर धारेगा.

चाहते हो सिलसिला चलता रहे, तुम्हारे वंश के बेलों का,
अंत  करना होगा ,कोख में बेटी को मारनेवाले खेलों का .

सृष्टि की  रचना  का, ये एक विधान है,
फर्क नहीं बेटा बेटी में , दोनों एक समान हैं.


"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

शनिवार, जुलाई 02, 2011

बस तेरी तस्वीर से लिपटी, घर- बार अधूरा लगता है

जिस गीत पर झूमता था दिल ,
उस गीत का हर तार अधूरा लगता है,

बंध जाते थे नैन मेरे आईने से बरबस ,
तुम बिन ये रूप श्रृंगार अधूरा लगता है.

सजाते रहे ग्रीवा को असंख्य ज़ेवरात  से
तेरे मोती के हार बिन,अलंकार अधूरा लगता है.

राहें सूनी ,पनघट सूना, सूना सारा  संसार,
रूठे जबसे श्याम , राधा का प्यार अधूरा लगता है .

यादों से सराबोर मेरा ह्रदय चाक- चाक,
बस तेरी तस्वीर से लिपटी, घर- बार अधूरा लगता है.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"