बुधवार, नवंबर 30, 2011

आज हंसकर बिखर जाओ फिज़ाओं में

बंद कर दो मयकदों के दरवाज़े,
वो बनकर सुरूर   छानेवाला है,
आज हंसकर बिखर जाओ,
 फिज़ाओं  में ,ऐ बहारो,
कि मेरा जान-ए - बहार आनेवाला है.

7 comments:

Arvind kumar ने कहा…

bahut khoob..

Arvind kumar ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Atul Shrivastava ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!चर्चा मंच में शामिल होकर चर्चा को समृध्द बनाएं....

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत ही सुंदर रचना,..बधाई..शुभकामनाए,.

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

बहुत खूब....
सादर..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

वाह!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

मै परीक्षा के व्यस्तता के कारण ब्लॉग तथा घर दोनों से दूर थी ,अथ माफ़ी चाहूंगी ब्लॉग साथियों से और ब्लॉग से दूर रहने की आपसबके टिप्णियों की कोई जवाब भी नहीं दे पाने का खेद है.......