गुरुवार, नवंबर 26, 2015

मसला पूरी ग़ज़ल का था


मसला पूरी ग़ज़ल का था
मिसरे पर ही अटक  गए

नाजुक रिश्ते    कांच से
द्वेष अग्न में चटक गए

कैसे मंजिल तक जायेगे
अपनी राह से भटक गए

क़दम फूँक कर रखते हैं
जो आँखों में खटक गए

लालच के मारे कुछ लोग
कुक्कुरों सा    झपट गए
"

रजनी"

गुरुवार, अक्तूबर 08, 2015

कहीं पत्थर कहीं पर्वत कहीं जंगल भी मिलते हैं

हौसलों के चट्टान को तोड़ देते हैं नाउम्मीदी के पत्थर 
उम्मीदों के दीये जलने के लिए लड़ जाते हैं तूफान से
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चल पड़ते    हैं     क़दम    बेख़ौफ़    हर रास्ते     पर 
मेरे     अज़ीज़ों    की    दुआएं    काम    आती    हैं

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राह   ऐसे   नही   सुगम    होते   हैं  हर   मंजिल  के 
कहीं  पत्थर   कहीं पर्वत कहीं जंगल भी  मिलते  हैं
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बुधवार, सितंबर 16, 2015

गद्दारों से मिलकर वफ़ा कर रहा है

गद्दारों से मिलकर वफ़ा कर रहा है
कुछ  भी  नहीं  वो नया कर रहा है

मासूमियत  या  सयानेपन   से
नादानी अपनी  बयाँ कर रहा है

भटका हुआ सहाब   हो गया है 
नीलाम अपनी अना कर रहा है

"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

रविवार, सितंबर 13, 2015

सीख़

हो  झोपडी  या  ऊँची  महलों  का  बसेरा
दोनों को  ज़मीन चाहिए  कब्र  के वास्ते

"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

शुक्रवार, सितंबर 04, 2015

कृष्ण जन्माष्टमी   की हार्दिक शुभकामनायें

भाद्रपद की तिथि    अष्टमी
कृष्ण  जन्म   का   त्यौहार


 फिर से    जाओ   कान्हा
 तुम  लेकर    कोई   अवतार

वंशी बजईया   रास  रचईया
करने   दुष्टों     का     संहार


कह  रही  विवश   धरा तुमसे
बढ़ गया कंश का   अत्याचार


जहाँ तुमने    था  जन्म लिया
सुनले  कोई अर्जुन रहा  पुकार

गुरू ( कल, आज और कल ) शिक्षक दिवस पर



गुरु गढ़ता  था
अपने   ज्ञान   के सांचे पर
निकलते थे
तब जाकर
गुरु भक्त आरुणि,
राम,
एकलव्य
अर्जुन !
लक्ष्य होता था
संधान का |
कल्याण का ,
फैलाते रहे प्रकाश पुंज
नवीन ज्योति का
तभी तो आलोकित है
युगों तक उनका नाम |
बुहारते रहे
पथ कर्म का ,
फल की चाह से बनकर अंजान ...
सन्मार्ग की गति
सदा पथरीली रही है
गुरु सदा से निकालता  रहा
उसी पथरीली ज़मीन को  तराश  कर
अपनी अनुभूतियों
और क्षमताओं से खिलाता रहा है
महकता हुआ पुष्प गुच्छ
जो कहलाते आये हैं
कर्मधार,
युगपुरुष,
वीरांगना,
विदुषी |
लहरा रहे दिग- दिगंत तक
अपनी शौर्य की पताका
वैदिक युग  से लेकर इक्सवीं  सदी तक ...
पर आज बदल रहा है
गुरु की परिभाषा
खोने लगा गुरु अपनी महत्ता
भूमि वही उर्वर है
बीज पुष्ट नहीं बन पा रहे |
नैतिकता की ,
सम्मान की,
विश्वास की,
ज्ञान की तुला में
खोता जा रहा है
आज  गुरु अपना घनत्व …
कैसे निर्धारित करेंगे
आनेवाले समय में
जीवन मूल्यों को ?
गुरु -शिष्य परम्परा को !
जहाँ उपनयन संस्कार के बाद
अधिकार की डोर
गुरु सँभालते थे
कर्तव्यों का निर्वाह
शिष्य हँसकर करता था
फिर से चाहिए
आनेवाले कल को
गुरु ...
जो ले जाये अंधकार से प्रकाश की ओर
तुम बनो भावी गुरु जिसकी ओज
वशिष्ट ,
द्रोण,
विश्वामित्र,
परशुराम,
शौनक,
चाणक्य,
शंकराचार्य,
संदीपनी,
रामकृष्ण परमहंस
सी भी ऊँची और प्रखर हो ,
जो बनाये रखे
गुरु की महत्ता हर युग में |



"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

सोमवार, अगस्त 31, 2015

मेरी क़लम भाई- बहन के इस पावन पर्व रक्षा बंधन पर कुछ कह रही है..


भूल कर गीले-शिकवे तोहमत और तक़रार
भाई के कलाई पर बंध जाये बहन का प्यार
सजे कलाई राखी से जिन भाईयों की आज
हर्षित हो फिरें वो लिए गौरव का ताज़
सरहद पर मेरे भैया मत होना उदास
लाखों बहनों की राखी गयी होंगी तेरे पास
बहन कुमारी पास में राखी लिए तैयार
बहनें विवाहिता मिलने को बेकरार
जिन्हें मिली तक़दीर से बहन की सौगात
फिर कैसे सूनी रहे राखी बिन उनके हाथ
इन दिनों चल रही जिनकी बहनें नाराज़
तोहफा इस बार राखी में दे दें उनको प्याज smile emoticon
"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

मंगलवार, अगस्त 04, 2015

अपनी आज़ादी के गीत गाते रहे

दे-दे  के वास्ता सीता का  हर  बार  
अपनी तमन्नाओं को लोग सुलाते रहे

दहलीज़ से निकलकर ना छोड़ी लाज
दायरे में बंधे  आते  -  जाते   रहे

लांघते  रहे  खीची  लक्ष्मण   रेखा  
कुछ सीखते रहे  कुछ   भुलाते  रहे

तम्मनाएं फैलाती रहीं अपना आकाश
शिकंजे   दूर  पँख   फड़फड़ाते रहे 

संस्कारों के    बांध  कर   पायल
अपनी आज़ादी के  गीत  गाते रहे


 रजनी मल्होत्रा  नैय्यर

मंगलवार, जुलाई 28, 2015

"अंतहीन सड़क " स्त्री के अस्मिता पर लगे प्रश्न (पुस्तक समीक्षा )

"अंतहीन सड़क " स्त्री के अस्मिता पर लगे प्रश्न (पुस्तक समीक्षा )

"अंतहीन सड़क " लेखक के द्वारा अपने अंदाज़ में प्रस्तुत करती हुई स्त्री के अस्मिता पर लगे प्रश्न पर एक उपन्यासिका या यूँ कहें लम्बी कहानी है | शोधात्मक रुप मेँ कथात्मक शैली मेँ प्रस्तुत एक ऐसी कोशिश है जिसपर नारी विमर्श का ढोल पीटते किसी अन्य पुरुष या महिला रचनाकारों का उतने विस्तृत तौर पर ध्यान यही गया जितना की अविनाश ने अपने साहस के साथ इस विषय पर भरपूर प्रयत्न किया है | कहानी चार मित्रों के जरिये आगे बढ़ती है , जिसे आरम्भ करती हैँ कलकत्ता की ख़ुद एक मुस्लिम लड़की नुसरत परवीन | एल.एल.बी. के अध्ययन के लिए अविनाश , जमशेदपुर का विवेक तथा कलकत्ता का असफाक साथ-साथ रहते हैँ | नुसरत वाराणसी में ही रहती है वह इनलोगो के साथ घुलमिल जाती है और यहीं से शुरू होता है पढ़ाई के दौरान वेश्या जीवन के अंत के लिए चारोँ का प्रयत्न |चारोँ का संकल्प होता है कि वेश्या जीवन के अंत के लिए प्रयत्न किया जाए । वेश्या बनने के कारणोँ की तलाश हो । चारोँ सम्मिलित हो साहस और निस्संकोच रुप से वेश्याओँ के पास जाते हैँ । कहीँ-कहीँ फीस चुकाते हैँ । उनकी कोठरी मेँ प्रवेश करते हैँ ।वहाँ की गंदगी और परिस्थिति से रुब-रु होते हैँ । वेश्याओँ से बात करते हैँ । उन्हेँ विश्वास मेँ लेते हैँ । उनकी जीवन-गाथा से परिचित होते हैँ । उन्हेँ नये जीवन के शुरुआत करने के लिए प्रेरित करते हैँ । कुछ
वेश्याएँ अपनी विकल्पहीनता की बात करती हैँ । कुछ सामाजिक भय का उल्लेख
करती है । कुछ आर्थिक विपन्नता बतलाती हैँ । कुछ बताती हैं कैसे उन्हें दर्दनाक पीड़ा देकर जबरन इस दलदल में उतारा जाता है | उपन्यास में वैदिक काल की अप्सराएं और गणिकाएं , मध्य युग की देवदासियां और नगरवधुएँ मुगलकाल की बारंगनाएँ | हर युग में स्त्री की यही त्रासदी दुहरती रहीं जिस सड़क पर वो आ गयी उसका कहनी अंत नही | लेखक ने “ अंतहीन सड़क” कुछ सोचकर ही नाम दिया |
कोई लड़की कैसे पहुँचती है इस दलदल में ? एक बड़ा सवाल है इसे भी परवीन अपने अंदाज़ में कहती नज़र आती है आधुनिक युग में स्त्रियों को वेश्यावृति की ओर प्रेरित करनेवाले कई कारण हैं जिनमे पहला कारण आर्थिक मजबूरी , दूसरा कारण स्वार्थी और लोलुप होना ,विवाह संस्कार के कठोर नियम, दहेज़ प्रथा, विधवा विवाह पत्रिबंध, अनमेल विवाह तलाक और उनसबके साथ - साथ चरित्रहीन माता -पिता अथवा साथियों का साथ ,अश्लील साहित्य, चलचित्रों में कामोत्तेजक प्रसंगों का बाहुल्य |
इसके बाद एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है -- कतिपय स्त्री-पुरुष में काम प्रवृति का प्रबल होना यहाँ इसके बाद वैवाहिक जीवन से बाहर उस संतुष्टि की खोज वैवाहिक जीवन को घोर नारकीय बना देती है , पुरुष का बिछाया हर विसात उसका हो जाता है पर स्त्री बिखर जाती है| कई बार प्रेमी प्रेमिका के साथ छलकपट कर , इन्हेँ वेश्यालय मेँ बेच देते हैँ । सुन्दर औरतेँ कमाई का साधन नहीँ होने से सेक्स की कमाई से जीवनयापनकरती हैँ । कार्यालयोँ मेँ नियुक्ति , पदोन्नति का लाभ लेने के लिए लड़कियोँ/औरतोँ को शरीर समर्पण करना पड़ता है | आजकल कॉलेज जीवन या स्कुली जीवन मेँ ब्वायफ्रेँड , गर्लफ्रेँड की
संस्कृति से हुए धोखोँ के बाद समाज से बहिष्कृत लड़कियाँ वेश्या का कार्य
करने के लिए मजबूर हो जाती हैँ ।
'अंतहीन सड़क' उपन्यास मेँ संजय कुमार'अविनाश' ने इसमेँ अविनाश , दिव्या {फरहद} , परवीन ,असफाक , योगेन्द्र राय , विवेक , प्रभा , शुभम , सारिका , कशिश , आयशा ,
शमीम जैसे सार्थक एवं समर्थ पात्रोँ के माध्यम से वेश्यालय की कार्यविधि को बहुत साफ रुप से खुलासा किया गया है । वेश्याएं शाम होते ही सजी- धजी सड़क के किनारे या गलियों में अपने ग्राहक का इंतज़ार करती हैं रात को सुहागन सी रहकर सुबह बिलकुल वेवा सी बन जाती हैं उपन्यास की पात्र दिव्या कहती है " हम हर रात दुल्हन होती हैं सुबह वेवा हो जाती हैं " हर शाम एक रंगीन सपना लेकर आती है जिसमेँ बड़े - बड़े पूंजीपति लोग अपनी इज्जत को डुबाते और रंगीन सपनोँ मेँ रंगते हैँ ।इस तरह इज्जतदार लोग गंदगी मेँ डूबने मेँ अपना गौरव समझते हैँ । वे यहनहीँ सोचते कि इन्हेँ इज्जतदार जीवन जीना है । अपने चरित्र की सुरक्षा
करनी है । वे अपनी ही बहू-बेटियोँ की इज्जत सुरक्षित नहीँ रहने देते ।वेश्यालय पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है । कानूनी या गैरकानूनी स्तर पर । समाज ऐसी गंदी जगह खुद बनाता है । यह उपन्यास एक सामाजिक कैँसर की तरह है जिसका कोई इलाज आजतक नहीँ खोजा जा सका है । विदेशोँ मेँ तो वेश्यालय खुलेआम बहुत ज्यादा चल रहे हैँ । भारत मेँ भी अब इसकी नकल हो रही है । इसीलिए अबभारत मेँ वेश्यालयोँ की संख्या बढ़ रही है । औरतेँ भौतिकवादी सुविधाओँ की उपलब्धि के लिए सेक्स वर्कर का कार्य करने से नहीँ सकुचातीँ , बल्कि अपने को गौरवान्वित समझती हैँ । यह अंतहीन सड़क अच्छी नहीँ । फिर भी समाज का हर आदमी बिना सोच-समझे इसपर दौड़ने को आतुर है । लेखक ने आंकड़ोँ का प्रयोग किया जानकारी दी कि आज कुल लगभग ग्यारह सौ सत्तर रेड लाइट एरिया है जिनमेँ यौन कर्मियोँ की संख्या लगभग तीस लाख है । सन् 1956ई.मेँ आजादी के बाद भारत सरकार ने सिता एक्ट लाया था । जिसके अनुसार
शारीरिक-व्यपार प्रतिबंधित हुआ था केवल मनोरंजन के लिए गायन की स्वीकृति
थी । परन्तु , वेश्यावृत्ति रुकी नहीँ बढ़ती गयी ।
पुन: 1986ई. मेँ पिटा एक्ट वेश्याओँ के सुधार के लिए लाया गया । उच्चतम न्यायलय ने भी पूर्णत: वेश्यावृत्ति पर रोक का कानून पारित नहीँ किया है।सम्प्रति , भारत के महानगरोँ मेँ देह-व्यपार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप से जारी है । हमारे हिंदुस्तान में सबसे बड़ा रेड लाईट एरियाकलकत्ता का सोनागाछी, मुंबई में कमाठीपुरा,दिल्ली में जी.बी. रोड. ग्वालियर में रेशमपुरा, वाराणसी में दालमंडी, सहारनपुर में नक्कास बाजारमुज्जफरपुर में चतुर्भुज स्थान , नागपुर में गंगायमुना\ वेश्यावृत्ति के विविध प्रकार है । बड़े-बड़े होटलोँ मेँ कॉल गर्ल्स उपलब्ध है ।संजय कुमार अविनाश ने पूरे देश के उन स्थानोँ का विस्तृत ब्योरा दिया है जहाँ वेश्यालय है । लाखोँ मेँ उनकी संख्या है ।
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निष्कर्ष

अंतहीन सड़क को पढ़ने के बाद निष्कर्ष के रूप में स्त्रियों का वेश्यावृति की ओर बढ़ता हुआ
आँकड़ा यही कहता है कि स्त्री का शोषण हर युग में होता रहा, कहीं गणिका, कहीं नगरवधू, कहीं देवदासी के नाम से | राजाओँ के दरबारोँ मेँ , देवताओँ के दरबारोँ मेँ वेश्याएं थीँ जिनसे वे इच्छानुरुप काम लेते थे । अप्सराएं इस तरह के कार्य करती थीँ । विषकन्याएं भी । इनसे जासूसी का काम भी लिया जाता रहा है । प्रेम के जाल मेँ फंसाकर रहस्योँ की खोज करना इनका काम रहा है ।अब स्वतंत्र भारत मेँ भी लगभग सभी शहरोँ मेँ वेश्यावृति है । कहीँ रजिस्टर्ड , कहीँ बिना घोषित । सेक्स वर्कर अपने जीवनयापन के लिए यह कार्य करती हैँ । 65प्रतिशत वेश्याएँ आर्थिक विवशता के कारण बनती है । विवाह-संस्कार के कठोर नियम , दहेज-प्रथा , विधवा विवाह का प्रतिबंधित होना , बलात्कार , अनमेल विवाह तथा तलाक आदि अन्य प्रधानकारण है जो वेश्याओँ को जन्म देते हैँ । कॉलेज जीवन या स्कुली जीवन मेँ ब्वायफ्रेँड , गर्लफ्रेँड की संस्कृति से हुए धोखोँ के बाद समाज से बहिष्कृत लड़कियाँ |आज कुछ स्त्रियाँ भौतिकवादी सुविधाओँ की उपलब्धि के लिए कम मेहनत में ज्यादा पैसे
की लालच में आकर, कुछ काम पिपासा की शांति के लिए वेश्यावृति को अपना रहीं |
वेश्याओँ का निजी जीवन कितना कंटकाकीर्ण और अंधकारपूर्ण है , यह सबकुछ इस रचना मेँ यथार्थवादी ढ़ंग से व्यक्त किया गया है । इसमें स्त्री अंगों से जुड़े कई कथानक भी जुड़े हैं पर कहीं से भी ये कामुक नहीं कही जा सकती | कहानी के भाग स्त्रियों के जीवन के है वो त्रासद अंश हैं जिन्हे जीने पर मजबूर हुई स्त्री की व्यथा का ढोल है ,पर पीटने पर आवाज़ नहीं करती विस्मित कर रही है | क्योंकि , इस बिहार प्रदेश होने के कारण भाषा में थोड़ी सी कमजोरी कहीं-कहीं नज़र आती है | ("अंतहीन सड़क" ) में वेश्याओँ के प्रति आकर्षण नहीँ बल्कि विकर्षण है । पात्र दिव्या के द्वारा दिए गए संवाद दार्शनिक शैलीमेँ वार्तालाप , उपदेशात्मक होते हुए यह शोधग्रन्थ की तरह लगता है , पर पाठकों को भटकने नहीं देगी | इस पुस्तक में वो प्रयास किये गए हैं जो वेश्याओं के नारकीय जीवन से मुक्ति का आगाज़ लगता है …
" रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

रविवार, जून 21, 2015

पिता के लिए एक दिन ....(father's Day par ) दुनिया के हर पिता को समर्पित


एक पिता के काँधे पर 
होता है भार अपनी
सृष्टि का , 
जैसे छत को 
संभाले रखती हैं दीवारें , 
अपनी  मजबूत पकड़ के साथ |
पूर्ण  रूप से निबाहता  है 
अपनी जिम्मेवारियों को ,
हर मौसम पिता के 
लिए होता है चुनौतियों
से भरा | 
जब बच्चों की ख़ुशियाँ 
खरीदने  में 
करना पड़ता है उसे  चुनाव ,
एक के बदले,
कुछेक का त्याग !
वो  पल पिता के लिए 
किसी जंग से कम नही होता |
मर्द का एक दम्भ 
“मर्द को दर्द नहीं होता “ 
करता है एक झूठे आवरण का काम |
जब अपनी भावनाओं
को छिपाने 
के लिए 
लेना पड़ता है पिता  (मर्द )
को झूठा  सहारा , 
छुपाने के लिए 
अपने आंसुओं को
बेटियों के विदाई में |
पिता की निगाहें भी जानती हैं 
कबतक संभालना है 
गौहर का समंदर |
एकांत  देखकर  
बांध हार मान  जाते हैं…
पिता के अंदर भी छुपी
होती है एक मासूम गुड़िया 
जो चलती है वक़्त की चाभी से |
पिता सीख जाता है 
वक़्त का हर सबक |
निराशा से भरी परत को,
झाड़ता है 
अपने धैर्य से
जो धूल सी जमने लगती है 
जीवन के गुलदस्ते में |
वक़्त की थपेड़ों   से कभी 
डगमगाते  हुए धीरज को 
संबल  देता है एक सजीव 
स्पर्श,
जो होती है 
उसके बच्चों की किलकारियों 
के रूप में 
कभी अँगुलियों का स्पर्श |
बच्चों के   ख्वाहिशें  
आसमान हुए  जाते  हैं 
उसकी एक भी इच्छा 
ज़मीन से  उठ नहीं पाती 
बच्चों की खुशियों 
की बोली (डाक ) में 
खुद को नीलाम कर देनेवाला 
वही पिता , 
कुछ बच्चों के  लिए 
 एक बेकार
वस्तु की तरह
 बन जाता है  !

" रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

गुरुवार, मई 21, 2015

बुजुर्गों का भविष्य

लटकती झुर्रियां
झूलते हाथ-पांव ,
ढूंढ रहे
मुक्ति का रास्ता |
भटक  रहा  सड़कों पर
बिता  हुआ कल
सरहद बन गयी जबसे
घर  की दीवारें ...
यादें नापती हैं, ज़मीं
कभी आकाश |
हथियार डाले उनका  आज
बैठ गया है
वील चेयर पर ...
पुकार रहा
धराशायी सिपाही सा ,
बुजुर्गों का भविष्य !
जी रहा है कछुआ
छिपा कर ,
खोल के भीतर का रहस्य ...
जो बिलकुल सपाट है  |

" रजनी  मल्होत्रा नैय्यर " 

सोमवार, मई 11, 2015

साज़ -ए दिल पर गीत मोहब्बत के गाते रहो



  बाद-ए-मुख़ालिफ़ में चिराग़ जलाते रहो
 दिल मिले या न मिले हाथ  मिलाते  रहो

  तिश्नगी बुझ जाएगी समंदर की' अगर
  बादलो  मुसलसल बूंद -बूंद बरसाते  रहो


   माना की एक  फ़ासला  है हमारे दरमियाँ
   इतना करम करो की तुम  याद आते रहो

  ग़फलत में  डूबी   हुई   है दुनिया सारी
 तन्हा   अपने हौसलों  से तुम जगाते   रहो

 नफ़रतों से भरी   इस जहाँ  में रजनी
साज़ -ए दिल पर गीत मोहब्बत के गाते रहो





हर ख़याल  ,  हर सवाल,
हर सपनों को  पूरी करती हैं आँखें |
जुबां जब साथ न दे
सैकड़ों सवाल करती हैं आँखें ...

दिल में हो खुशियाँ  भर जाती है
ग़म में भी  छलक  जाती हैं  आँखें.

जज़्बाती , कभी मासूम,  
कभी     अंगार   भरी

कुछ बोलती सी
कभी गुमसुम,
कभी शरारत   है  आँखें.

सागर    कभी      नदिया
कभी बारिश बन  बरसती है.

सपनों   में    खोयी,
नींद     से      बोझिल,
कभी   जगती हैं  आँखें.

ज़िन्दगी            सी    हंसी,
कभी  मौत   सी      गुमसुम
वक़्त सी चंचल  होती हैं आँखें.

रविवार, मई 10, 2015

संस्कार



संस्कार से पोषित पौधे,
पनपते हैं
अपनी ही धरातल  में,
अपने दायरे और
मयार से बंधित
और अनुशंषित |
संस्कार विधान
कितना अनूठा है
अपने आप में ,
बहुमुखी और
विस्तारित
जीवनीशैली से
बंधा हुआ
देता है विस्तार
असंख्य अनुभूतियों को ,
जो मर्यादित और
 अनुशंसित  सोच से
 फलित  होती है
जब वही मर्यादित  बंधन
उच्श्रृंखलता
का रूप ले लें तो
 टूट जाते हैं सारे दायरे
तार तार हो जाती है
मर्यादित संस्कार
जिसे विभूषित करते आये हैं
मनीषी अपनी
कलाओं  में, पांडुलिपियों में,
और
किया गया है जिसका वर्णन 
प्राकृतिक
उपमाओं में
कभी कभी गयी हैं
प्रश्नो के घेरे में
ये अजंता एलोरा की
भीति चित्रावलियाँ भी ,
जिन्हे उकेरे गए थे
कभी
मानवीय संवेदनाओं को
जगाने के लिए,
और, पल्ल्वित कर दिए गए थे
उनसे एक अंकुर
जो धीरे-धीरे
 प्रस्फुटित हुआ
बनकर प्रेम का
 एक पौधा |
सोये हुए अंग -प्रत्यंग में
 जीवंत
और स्फुरित करती
भरती हुई संचारित 
शक्तियों को
कभी कभी ये जीवंत
भीति चित्रावलियां,
भर देती
मादकता और
छलकता प्रेम
जिसे जाना गया
वासना के नाम से |
पर क्या संभव है
संसार में सबका
आचरण से
शंकराचार्य  या गौतम हो जाना ?
संसार के भीति
को भी चाहिए
कुछ चित्रावलियाँ,
जिससे वो उकेर सके आनेवाली
अनुशंसाओं को,
भविष्यवली वो भी सजाये
अपने होने का उसे भी
एहसास चाहिए
बनी रहे निरंतरता
चलता रहे संसार
बस बदले गए तो युग
जैसे बदलता है हर वर्ष
गत और आनेवाले के बीच
रह जाती है
तो वो
स्मरणीय चिन्ह
 जिन्हे यादें
या इतिहास कहते हैं ...
घूमता रहता है संस्कार
अपने अक्ष पर |
कभी कभी इसके बिगड़ने पर
लांक्षित होती है मर्यादा…
जैसे  हम दोष देते हैं
प्रकृति को ,
आनेवाली सुनामी अथवा अन्य
हादसों  के लिए |
उसी तरह संस्कार से विहीन
होती पीढ़ियां,
संस्कार को लांघती पीढ़ियां
अमर्यादित कर देती हैं
अपने ही जनक को


"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

बुधवार, अप्रैल 29, 2015

कौन श्रेष्ठ प्रकृति या पुरुष ?

कुछ प्रकृति की ओर से ..........
तुम आधुनिकता से ,
उत्तर आधुनिकता
की ओर आ गए,
कर ली होड़
जीत ली बाज़ी
दे सकते हो मात नियति को,
फिर क्यों
कराह है, क्यों अश्रु जल से
पूरित हो ?
कर लिया है निर्माण
हर तरह का साँचा
टेस्ट ट्यूब बेबी हो या
मानव क्लोन !
कृतिम सांसें,
कृतिम अंग .
भौतिकता से
अटे पड़े हैं
तुम्हारे दिग
और जारी है विस्तार
ऐ मनुज !
कर लो निर्माण
एक और धरा की ,
ले आओ
एक सूर्य और,
चन्द्र भी कहीं से,
जब सब कुछ है
तुम्हारे हाथों में |
फिर तबाही से
क्यों विस्मित हो ?
असमय ही गर्त में
ले जायेगा
अंध दौड़ |
धरा ,
खाद की जगह लहू लेगी,
मौत की फसल खिलायेगी
अपने अंक में |
कौन श्रेष्ठ प्रकृति या पुरुष ?

शनिवार, अप्रैल 18, 2015

आचरण का पौधा

रखना चाहती हूँ
कुछ सिक्के ,
तुम्हारी हथेली पर
जिनसे  तुम खरीद सको  
कुछ मूलयवान वस्तुएं,
जो धरोहर के रूप में संजो दें |
वक़्त के साथ - साथ ,

ये अपनी
मांग और कीमत को
निखारती चलें ,

जिसे कह सकें  अनमोल 
आनेवाले वंशज ,
दिखा सकें
और महसूस करें खुद को गौरवान्वित ,
तुम ही बोलो क्या खरीदना चाहोगे
इस सांसारिक बाजार से ?
भौतिकता की चमक
में खोना चाहते हो ?
अंधी दौड़ में शामिल
होना चाहते हो ?
या ,
बाजार में अपना
अस्तित्व ढूंढते ढूंढते
उनमे ही विलुप्त हो जाना ?
केशर हो या कस्तूरी ,
विष हो या अमृत,
ये किसी भी आकार में
किसी भी युग में
किसी भी पात्र में आकर
 अपना
अस्तित्व नही खोते.
मैंने भी संजोया था एक सिक्का,
और
जीवन पर्यन्त न खोने वाली
वस्तु जिसे आचरण के नाम
से जानती हूँ ,
इसे हस्तगत स्थानांतरण
करना चाहती हूँ,
जो चलती रहे
पीढ़ी दर पीढ़ी |
समय के साथ
इसकी मांग और 
कीमत में उत्तरोत्तर
बढ़ोतरी आती जाये ,
ये आचरण का पौधा
नही मिलता है
किसी भी बाजार में,
न इसे खरीदे जा सकते ,
हाँ आजकल
आचरण बिकते जरूर हैं !
चंद जरुरत ,
चंद सिक्के !
और आचरण ,
घर की दहलीज को फाँदती
पहुंच जाती है बहुत दूर ,
हो जाती है तेरे और मेरे
पहुंच से ओझल या लापता |
.
"रजनी मल्होत्रा ( नैय्यर )
बोकारो थर्मल

एक रेखा

मैंने भी खींची थी , 
एक रेखा | 
जिसे,
नाम नही दिया था 
बस इतना पता था, 
इसके घेरे से बाहर जाना है, 
तभी टूटेगी भ्रामक सोच |
हर दिन के साथ 

बढ़ती गयी ,
परिधि रेखा की...
छोटे होते गए 

विकृत विचार, 
अवमाननायें ,
जिसने उद्गार का सोता 

बंद कर दिया था |
पनप चुके 

धधकते  ज्वालामुखी  ने ,
ले लिया था आकार,
बस तलाश थी 

कमजोर ज़मीं की,
एक दिन फूटा ,

सोता उद्गार का
फिर ,
हट गए सारे प्रश्नचिन्ह,
जिसने
मानदंड तय कर रखे थे ,
हर रेखा लक्ष्मण रेखा सी प्रतिबंधित होती है |

दायरों का टूटना

दायरे 
" तंग " 
हों या " विस्तृत " 
कोई फर्क नहीं पड़ता |
यदि 
मायने रखता है तो वो ,
दायरों का टूटना
या उनसे निकलना |


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मान्यताओं की
एक परिधि लाँघ कर,
हम 
नवीन तथ्यों के लिए
कई रास्ते खोल देते हैं ..








गुरुवार, अप्रैल 02, 2015

नहीं कहला रहे नीलकंठ

कई बार खो जाते हैं ,
साथ  रहते,चलते
करीबी रिश्ते |
जब ,
सर उठाने लगती है
साथ गुजारे  
लम्हे
कुछ लौट आते हैं
उलटे क़दम
जैसे आ जाता है ,
सुबह का निकला पंछी नीड़ में |
कुछ अजनबी बन कर
नदी का किनारा सा रह जाते हैं |
पी रहे हैं ,
हमारे तुम्हारे जैसे
सरल आशुतोष
रिश्तों के मंथन से निकले विष को
पर नहीं कहला रहे नीलकंठ !
दूर खड़ी
मौन ,  टूटे मनके को
रह-रह कर  बांधती है ,
पर भावनाओं के बिखरे  मोती
छटक कर दूर चले जाते हैं !

"रजनी मल्होत्रा (नैय्यर )


शुक्रवार, मार्च 13, 2015

ग़ज़ल

 'द  सोहेल 'कोलकाता  की मासिक पत्रिका में छपी मेरी ग़ज़ल

और कितने आसमान चाहिए उसअत के लिए
ज़मीं  कम पड़ने  लगी    है    राहत  के   लिए

  कीदोस्ती   का   एक   पौधा  लगा दें
बहुत  वक़्त  पड़ा    है  अदावत    के     लिए

हर  सु  है   गिराँबारी   का   आलम अल्लाह
वक़्त माकूल   सा  लगत  है बगावत के लिए

कई  पेच - व्- ख़म    बाक़ी     हैं   ज़ीस्त  के
साज़ - वो - नगमा उठा  रखो  फुर्सत के लिए 

लफ़्ज़ों   में बयाँ  कर      सकूंगी   जज़बात 
हौसले  दिल में  हैं उर्दू   की अज़मत  के लिए

बस  इक किरण  उजाले  की  ज़माने  को  दूँ
है ग़ज़ल "रजनी " दुनिया की मुसर्रत के लिए

उसअत -   फैलाव
अदावत -   दुश्मंनी
गिराँबारीमहंगाई
ज़ीस्त -     ज़िन्दगी
अजमतमहत्व
मुसर्रत  -  खुशी

" रजनी मल्होत्रा नैय्यर " 
 (बोकारो थर्मल )



    

मंगलवार, जनवरी 06, 2015

" वो औरत नहीं "

         

 घना कोहरा सा  दबा हुआ दर्द मासूम मजबूर का , आहिस्ता -आहिस्ता  फैलता हुआ  समेट  लेता  है संपूर्ण जीवन के हर कोण - त्रिकोण को |   परिवर्तन और परावर्तन के नियम से कोसों दूर उसका संवेग और सोचने की क्षमता बस लांघना चाहती है उस उठते लपट को जिसने  घेर कर बना रखी है शोषक और शोषित के बीच की एक मजबूत सी दीवार और कुछ रेखाएँ |   यह कुदरत के नियम का कैसा  मखौल है , सम शारीरिक संरचना को सिर्फ रंग भेद और कुछ सिक्कों की खनक  कर देती है अलग जैसे कागों और बगुलों की अपनी-अपनी सभा | इस आदम भेड़िये के बीच की खाई देख सहसा कह उठता है मन ये क्या ? इस तकरार और भेद की नीति में एक सिक्का कैसे सिमट कर रह गया | शायद इस संरचना के साथ कोई जाति ,  रंग भेद की नीति नहीं चलती , चलती  है तो बस एक देह की जो मांसल और कोमल है जिसके आस्वादन के लिए जरुरी नहीं उसकी इच्छा की  मंजूरी , उसकी उम्र, भावना , परिपक्वता, अपरिपक्व होना | गिद्धों के पंजे और नाख़ून उसमे समाकर ढूंढ़ ही लेते  हैं अपना आहार | दिन के उजाले में कभी रात के अंधकार में तलाशता हुआ चला जाता है भूखे भेड़ियों का  झुण्ड किसी निरीह मेमने की शिकार को |
देता हुआ  प्रलोभन सुनता है हर आलाप को , और मिट जाते हैं टुकड़े भर कागज में लगे अंगूठे के निशान जो कभी गवाही बने शोषक की लाचारी का |
अब एक कोने में सिमटते हुए सूखे पत्ते  सी टूटती नार  को करना है तार- तार  अपनी अस्मत  त्याग के हवनकुंड में , जिसमे जलकर उसका स्वाभिमान हो जायेगा कई तड़पते और भूखे पेटों  का पोषक |
चाहे नश्वर शरीर को जीत ले कोई  ,पर आत्मा तो उसे ही प्राप्य है  स्व को सौपा हो जिसे | वो अपने अहं को मार कर कर लेगी जिन्दा कई निष्प्राण शरीर को जिनसे वो जुडी है कई रिश्तों के साथ अम्मा, पत्नी , बेटी  पर कहीं से भी वो औरत नहीं " सिर्फ एक देह है जो नश्वर है

अपवित्र नहीं है  कर लेगी फिर से वो अपना परिष्कार , बना लेगी इस बात का साक्ष्य अपने वेणी के गांठ को | उसका शोषण और दोहन हो ही नहीं सकता वो जानती है कहीं से भी वो औरत नहीं " सिर्फ एक देह है जो नश्वर है औरत कभी नहीं मरती उससे ही वजूद है संसार का | शैतान,  संत , राग, वैराग सब उसकी ही उत्पति हैं |
उसकी पवित्रता की साक्ष्य स्वयं धरा है जो कहती है  परिष्कार की आवश्यकता नहीं उसे क्योंकि उसके क़दमों से ही धरा उर्वर होती है , महक उठता है फिजा उसकी देह की महकती धुनी से | वो तोड़ती है हर चक्रव्यूह  को तब जीत पाता है मनु (mnushy) महाभारत का युद्ध | वो दौड़ती है  शुष्क से जीवन में बनकर रक्त वाहिका तभी स्पंदित होता है परिवार | बनकर परिधि वो बांधे रखती है अपनी स्नेह के गुरुत्वकर्ष्ण से तब जाकर सम्भलता है जीवन का रेला | परिषेचक  बनकर महकाती है बगिया , कभी मृदुल कभी लवन बनाकर अपने अंतस को |
पर कुटुंब को समर्पित परिचारिका पाती है वंचना, लांछन, परिघात  और कभी - कभी कर दिया जाता है उसका परित्याग उसी के द्वारा  जिसने अग्नि को साक्षी बना फेरों व् कसमों की मजबूत कफ़स में क़ैद  कर अपने कुत्सित विचारों को बन बैठता है किसी का भाग्यविधाता, परित्राता |
" वो औरत नहीं "  पावन धाम है जिसे पवित्र निगाहें छुकर मोक्ष पा जाते हैं |

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

बोकारो थर्मल