रखना चाहती हूँ
कुछ सिक्के ,
तुम्हारी हथेली पर
जिनसे तुम खरीद सको
कुछ मूलयवान वस्तुएं,
जो धरोहर के रूप में संजो दें |
वक़्त के साथ - साथ ,
ये अपनी
मांग और कीमत को
निखारती चलें ,
कुछ सिक्के ,
तुम्हारी हथेली पर
जिनसे तुम खरीद सको
कुछ मूलयवान वस्तुएं,
जो धरोहर के रूप में संजो दें |
वक़्त के साथ - साथ ,
ये अपनी
मांग और कीमत को
निखारती चलें ,
जिसे कह सकें अनमोल
आनेवाले वंशज ,
दिखा सकें
और महसूस करें खुद को गौरवान्वित ,
तुम ही बोलो क्या खरीदना चाहोगे
इस सांसारिक बाजार से ?
भौतिकता की चमक
में खोना चाहते हो ?
अंधी दौड़ में शामिल
होना चाहते हो ?
या ,
बाजार में अपना
अस्तित्व ढूंढते ढूंढते
उनमे ही विलुप्त हो जाना ?
केशर हो या कस्तूरी ,
विष हो या अमृत,
ये किसी भी आकार में
किसी भी युग में
किसी भी पात्र में आकर
अपना
अस्तित्व नही खोते.
मैंने भी संजोया था एक सिक्का,
और
जीवन पर्यन्त न खोने वाली
वस्तु जिसे आचरण के नाम
से जानती हूँ ,
इसे हस्तगत स्थानांतरण
करना चाहती हूँ,
जो चलती रहे
पीढ़ी दर पीढ़ी |
समय के साथ
इसकी मांग और
कीमत में उत्तरोत्तर
बढ़ोतरी आती जाये ,
ये आचरण का पौधा
नही मिलता है
किसी भी बाजार में,
न इसे खरीदे जा सकते ,
हाँ आजकल
आचरण बिकते जरूर हैं !
चंद जरुरत ,
चंद सिक्के !
और आचरण ,
घर की दहलीज को फाँदती
पहुंच जाती है बहुत दूर ,
हो जाती है तेरे और मेरे
पहुंच से ओझल या लापता |
.
"रजनी मल्होत्रा ( नैय्यर )
बोकारो थर्मल
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