घना कोहरा सा दबा हुआ दर्द मासूम मजबूर का , आहिस्ता -आहिस्ता फैलता हुआ
समेट लेता है संपूर्ण जीवन के हर कोण - त्रिकोण को | परिवर्तन और परावर्तन के नियम से कोसों दूर उसका
संवेग और सोचने की क्षमता बस लांघना चाहती है उस उठते लपट को जिसने घेर कर बना रखी है शोषक और शोषित के बीच की एक मजबूत
सी दीवार और कुछ रेखाएँ | यह कुदरत के नियम
का कैसा मखौल है , सम शारीरिक संरचना को सिर्फ
रंग भेद और कुछ सिक्कों की खनक कर देती है
अलग जैसे कागों और बगुलों की अपनी-अपनी सभा | इस आदम भेड़िये के बीच की खाई देख सहसा
कह उठता है मन ये क्या ? इस तकरार और भेद की नीति में एक सिक्का कैसे सिमट कर रह गया
| शायद इस संरचना के साथ कोई जाति , रंग भेद
की नीति नहीं चलती , चलती है तो बस एक देह
की जो मांसल और कोमल है जिसके आस्वादन के लिए जरुरी नहीं उसकी इच्छा की मंजूरी , उसकी उम्र, भावना , परिपक्वता, अपरिपक्व
होना | गिद्धों के पंजे और नाख़ून उसमे समाकर ढूंढ़ ही लेते हैं अपना आहार | दिन के उजाले में कभी रात के अंधकार
में तलाशता हुआ चला जाता है भूखे भेड़ियों का
झुण्ड किसी निरीह मेमने की शिकार को |
देता हुआ प्रलोभन सुनता है हर आलाप को , और मिट जाते हैं
टुकड़े भर कागज में लगे अंगूठे के निशान जो कभी गवाही बने शोषक की लाचारी का |
अब एक कोने में सिमटते हुए सूखे
पत्ते सी टूटती नार को करना है तार- तार अपनी अस्मत
त्याग के हवनकुंड में , जिसमे जलकर उसका स्वाभिमान हो जायेगा कई तड़पते और भूखे
पेटों का पोषक |
चाहे नश्वर शरीर को जीत ले कोई ,पर आत्मा तो उसे ही प्राप्य है स्व को सौपा हो जिसे | वो अपने अहं को मार कर कर
लेगी जिन्दा कई निष्प्राण शरीर को जिनसे वो जुडी है कई रिश्तों के साथ अम्मा, पत्नी
, बेटी पर कहीं से भी वो औरत नहीं " सिर्फ
एक देह है जो नश्वर है
अपवित्र नहीं है कर लेगी फिर से वो अपना परिष्कार , बना लेगी इस
बात का साक्ष्य अपने वेणी के गांठ को | उसका शोषण और दोहन हो ही नहीं सकता वो जानती
है कहीं से भी वो औरत नहीं " सिर्फ एक देह है जो नश्वर है औरत कभी नहीं मरती उससे
ही वजूद है संसार का | शैतान, संत , राग, वैराग
सब उसकी ही उत्पति हैं |
उसकी पवित्रता की साक्ष्य स्वयं
धरा है जो कहती है परिष्कार की आवश्यकता नहीं
उसे क्योंकि उसके क़दमों से ही धरा उर्वर होती है , महक उठता है फिजा उसकी देह की महकती
धुनी से | वो तोड़ती है हर चक्रव्यूह को तब
जीत पाता है मनु (mnushy) महाभारत का युद्ध | वो दौड़ती है शुष्क से जीवन में बनकर रक्त वाहिका तभी स्पंदित
होता है परिवार | बनकर परिधि वो बांधे रखती है अपनी स्नेह के गुरुत्वकर्ष्ण से तब जाकर
सम्भलता है जीवन का रेला | परिषेचक बनकर महकाती
है बगिया , कभी मृदुल कभी लवन बनाकर अपने अंतस को |
पर कुटुंब को समर्पित परिचारिका
पाती है वंचना, लांछन, परिघात और कभी - कभी
कर दिया जाता है उसका परित्याग उसी के द्वारा
जिसने अग्नि को साक्षी बना फेरों व् कसमों की मजबूत कफ़स में क़ैद कर अपने कुत्सित विचारों को बन बैठता है किसी का
भाग्यविधाता, परित्राता |
" वो औरत नहीं " पावन धाम है जिसे
पवित्र निगाहें छुकर मोक्ष पा जाते हैं |
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा
"
बोकारो थर्मल
2 comments:
काफी दिनों बाद ब्लॉग परिवार से सम्पर्क हो पा रहा | ब्लॉग परिवार को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें
बड़े दिनों की अधीर प्रतीक्षा के बाद आज आपका आगमन हुआ है
खट्टी-मीठी यादों से भरे साल के गुजरने पर दुख तो होता है पर नया साल कई उमंग और उत्साह के साथ दस्तक देगा ऐसी उम्मीद है। नवर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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