'द सोहेल 'कोलकाता की मासिक पत्रिका में छपी मेरी ग़ज़ल
और कितने आसमान
चाहिए उसअत
के लिए
ज़मीं कम पड़ने लगी है राहत के लिए
आ की
! दोस्ती का एक पौधा लगा दें
बहुत वक़्त पड़ा है अदावत के लिए
हर सु है गिराँबारी का आलम अल्लाह
वक़्त माकूल
सा लगत है बगावत के
लिए
कई पेच -
व्- ख़म बाक़ी हैं ज़ीस्त के
साज़ - वो - नगमा
उठा
रखो फुर्सत
के लिए
लफ़्ज़ों में बयाँ कर न सकूंगी
जज़बात
हौसले दिल में हैं उर्दू की अज़मत के लिए
बस इक किरण उजाले की ज़माने को दूँ
है ग़ज़ल "रजनी
" दुनिया की मुसर्रत के लिए
उसअत - फैलाव
अदावत - दुश्मंनी
गिराँबारी - महंगाई
ज़ीस्त - ज़िन्दगी
अजमत – महत्व
मुसर्रत - खुशी
" रजनी मल्होत्रा नैय्यर "
(बोकारो थर्मल )
3 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-03-2015) को "ख्वाबों में आया राम-राज्य" (चर्चा अंक - 1918) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर ग़ज़ल
Aabhari hun Shashtri sir ........
sabhi bloger mitro ko bhi shukriya meri rachna tak pahuchne ke liye .
एक टिप्पणी भेजें