एक पिता के काँधे पर
होता है भार अपनी
सृष्टि का ,
जैसे छत को
संभाले रखती हैं दीवारें ,
अपनी मजबूत पकड़ के साथ |
पूर्ण रूप से निबाहता है
अपनी जिम्मेवारियों को ,
हर मौसम पिता के
लिए होता है चुनौतियों
से भरा |
जब बच्चों की ख़ुशियाँ
खरीदने में
करना पड़ता है उसे चुनाव ,
एक के बदले,
कुछेक का त्याग !
वो पल पिता के लिए
किसी जंग से कम नही होता |
मर्द का एक दम्भ
“मर्द को दर्द नहीं होता “
करता है एक झूठे आवरण का काम |
जब अपनी भावनाओं
को छिपाने
के लिए
लेना पड़ता है पिता (मर्द )
को झूठा सहारा ,
छुपाने के लिए
अपने आंसुओं को
बेटियों के विदाई में |
पिता की निगाहें भी जानती हैं
कबतक संभालना है
गौहर का समंदर |
एकांत देखकर
बांध हार मान जाते हैं…
पिता के अंदर भी छुपी
होती है एक मासूम गुड़िया
जो चलती है वक़्त की चाभी से |
पिता सीख जाता है
वक़्त का हर सबक |
निराशा से भरी परत को,
झाड़ता है
अपने धैर्य से
जो धूल सी जमने लगती है
जीवन के गुलदस्ते में |
वक़्त की थपेड़ों से कभी
डगमगाते हुए धीरज को
संबल देता है एक सजीव
स्पर्श,
जो होती है
उसके बच्चों की किलकारियों
के रूप में
कभी अँगुलियों का स्पर्श |
बच्चों के ख्वाहिशें
आसमान हुए जाते हैं
उसकी एक भी इच्छा
ज़मीन से उठ नहीं पाती
बच्चों की खुशियों
की बोली (डाक ) में
खुद को नीलाम कर देनेवाला
वही पिता ,
कुछ बच्चों के लिए
एक बेकार
वस्तु की तरह
बन जाता है !
" रजनी मल्होत्रा नैय्यर "
2 comments:
ब्लॉग बुलेटिन के पितृ दिवस विशेषांक, क्यों न रोज़ हो पितृ दिवस - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बेहद भावपूर्ण प्रस्तुति
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