"आह अभी तू यूँ दस्तक ना दे,
दर्द अभी भरा नहीं,
छलका नहीं गम के प्यालों से,
जब वो बिखर जाये पलकों से,
आ जाना तब मेरे रुखसारों पे."
"रजनी मल्होत्रा नैय्यर."
गुरुवार, सितंबर 30, 2010
आह अभी तू यूँ दस्तक ना दे
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 30.9.10 4 comments
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आज का कोर्ट का फैसला जो भी हो हम एक हैं हिन्दुस्तानी .
"घर फूटेगा तो गंवार लूटेगा,देश टूटेगा तो गद्दार लूटेगा."
आज का कोर्ट का फैसला जो भी हो हम एक हैं हिन्दुस्तानी .जाति पाति में ना बाँट कर धर्म मजहब में ना बाँट कर ,एकता के सूत्र में बंध कर देखें .हम कमजोर हैं जब लड़ते हैं ,ताकतवर हैं जब एक हैं आज फिर इम्तिहान की बारी है अपने बंधुत्व को बनाकर रखना है हमें, ऐसा ना हो की फिर हमारी एक भूल किसी फिरंगी को फायदा उठाने का मौका दे दे. ऐसे भी भारतीय एकता को तोड़ने में दुश्मन सदा लगे रहे . पर कामयाब ना हो सके,हम हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई ना होकर माँ भारती के संतान हैं ,और किसी भी बात को शांति से हल करना ही बुद्धिमानी है .और वो वक़्त आ गया है जब हमें अपनी एकता को बना कर रखना है शांति बना कर रखना है..........
बस इस बात को हर भारतीय याद रख ले.............
" घर फूटेगा तो गंवार लूटेगा,
देश टूटेगा तो गद्दार लूटेगा."
"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 30.9.10 1 comments
रविवार, सितंबर 19, 2010
जरा अँधेरा होने से रात नहीं होती
जरा अँधेरा होने से रात नहीं होती,
अश्कों के बहने से बरसात नहीं होती.
दीपक के बुझ जाने से,
ज्योति गरिमा नहीं खोती.
दीया खुद जलकर,
औरों को रौशनी देता है.
खुद तो जलता रहकर ,
अन्धकार हमारा लेता है.
ये देता सीख हमें,
अच्छाई की राह पर चलना.
दीया की तरह ही जलकर हम भी ,
औरों को रौशनी दे पाए.
कुछ करें ऐसा जिससे ,
जीवन सफल ये कहलाये.
छोटी सी ये दीया की बाती,
पाती हमें ये देती है.
बदल जाता जहाँ ये सारा,
हम भी हर लेते किसी के गम.
पर ये बात अब कहाँ रह गयी,
मतलबी दुनियाँ में कहाँ ये दम.
हम अपने अंदर ही इतने हो गए हैं गुम ,
कौन है अपना कौन पराया मालूम नहीं .
खुद को लगी बनाने में ये दुनिया,
किसी की किसी को खबर नहीं,
दो वक़्त की रोटी कपड़ा में,
अब तो किसी को सबर नहीं.
जल जायेगा जहाँ ये सारा,
सारी दुनिया डूबेगी.
सदी का अंत लगता है आ गया,
गहराई में डूबोगे तो ,
पता चले हर बात की,
रंग बदलते फितरत सारे,
पता चले ना दिन रात की.
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 19.9.10 5 comments
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गुरुवार, सितंबर 16, 2010
पाना आसान नहीं , मंजिल की राह,
"ख़्वाब सजते हैं,
पलकों पर,
आसानी के साथ,
साकार करने में ,
मुद्दत भी लग जाते हैं,
पाना आसान नहीं ,
मंजिल की राह,
पाने में मंजिल,
पैर को ,
छाले भी पड़ जाते हैं."
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 16.9.10 9 comments
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मंगलवार, सितंबर 14, 2010
जो एक हैं , उनमे कैसी दूरी
क्यों कहते हो ?
उन ख़्वाबों को,
कल तक जो
तुम्हारे थे
आज वो मेरे हैं |
ऐसा नहीं,
कि जो ख़्वाब
कल तक
तुम्हारे पलकों पर सजते थे
रूठ गए तुमसे |
सच तो ये है
अब वो
हमदोनों के हो गए हैं |
और जो एक हैं
उनमें कैसी दूरी
कैसा बंटवारा ?
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 14.9.10 11 comments
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सोमवार, सितंबर 13, 2010
वो भी तड़पा होगा उसी तरह खुद को बदलने में
"कहते हैं लोग महबूब सनम को,
बदल गयी तुम्हारी नज़रे,
पर ये समझ नहीं पाते,
वो भी तड़पा होगा उसी तरह ,
खुद को बदलने में,
जैसे आत्मा तड़पती है,
तन से निकलने में."
-"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 13.9.10 5 comments
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बुधवार, सितंबर 08, 2010
आज डूबने को छोड़ गए , भर कर सैलाब.
"समझ ना पाए वो ,
चाहत हमारी बताने के भी बाद ,
कभी आंसू हटाया था रुखसार से मेरे,
आज डूबने को छोड़ गए ,
भर कर सैलाब."
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 8.9.10 5 comments
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मंगलवार, सितंबर 07, 2010
आज तब्बसुम लबों पे खिला ना सके
"सजदा किया है मन से , ख़ुदा की तरह ,
तुझे मंदिर - मस्जिद में बिठा न सके.
मन में तू बसा है ख़ुदा की तरह ,
चाह कर भी तुझे, बाहर ला न सके.
फूलों सा सहेजा है ज़ख्मों को,
उनके रिसते लहू दिखा न सके.
बहलते रहे हम भूलावे में मन के,
हक़ीक़त से खुद को बहला न सके.
दूर होकर भी हम कहाँ दूर हैं,
पास आकर भी पास आ न सके.
निगाह भर के देखा उसने हमें,
पर ज़रा सा भी हम मुस्कुरा न सके.
हमें शगुफ़्ता कहा था कभी ,
आज तब्बसुम लबों पे खिला न सके.
आरज़ू थी खियाबां-य- दिल सजाने की ,
ज़दा से उजड़ा सज़र फिर लगा न सके.
पूछते हैं कहनेवाले ज़र्द रंग क्यों ?
मुन्तसिर से हैं हम, बता न सके.
ला-उबाली सा रहना देखा सभी ने,
जिगर में रतूबत है बता न सके.
दौर-ए - अय्याम बदलती रही करवटें ,
शब् -ए- फ़ुरक़त में लिखी ग़ज़ल सुना न सके.
सोज़ -ए- दरूँ कर देती है नीमजां लोगों को,
हम मह्जूरियां में भी तुम्हें भूला न सके.
सजदा किया है मन से ख़ुदा की तरह ,
तुझे मंदिर - मस्जिद में बिठा न सके.
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 7.9.10 4 comments
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