"सजदा किया है मन से , ख़ुदा की तरह ,
तुझे मंदिर - मस्जिद में बिठा न सके.
मन में तू बसा है ख़ुदा की तरह ,
चाह कर भी तुझे, बाहर ला न सके.
फूलों सा सहेजा है ज़ख्मों को,
उनके रिसते लहू दिखा न सके.
बहलते रहे हम भूलावे में मन के,
हक़ीक़त से खुद को बहला न सके.
दूर होकर भी हम कहाँ दूर हैं,
पास आकर भी पास आ न सके.
निगाह भर के देखा उसने हमें,
पर ज़रा सा भी हम मुस्कुरा न सके.
हमें शगुफ़्ता कहा था कभी ,
आज तब्बसुम लबों पे खिला न सके.
आरज़ू थी खियाबां-य- दिल सजाने की ,
ज़दा से उजड़ा सज़र फिर लगा न सके.
पूछते हैं कहनेवाले ज़र्द रंग क्यों ?
मुन्तसिर से हैं हम, बता न सके.
ला-उबाली सा रहना देखा सभी ने,
जिगर में रतूबत है बता न सके.
दौर-ए - अय्याम बदलती रही करवटें ,
शब् -ए- फ़ुरक़त में लिखी ग़ज़ल सुना न सके.
सोज़ -ए- दरूँ कर देती है नीमजां लोगों को,
हम मह्जूरियां में भी तुम्हें भूला न सके.
सजदा किया है मन से ख़ुदा की तरह ,
तुझे मंदिर - मस्जिद में बिठा न सके.
4 comments:
bahut achchha likha hai aapne..........ati sundar
Waah Rajni ji sunder lines ...............
aapdono ko hardik naman
बेह्तरीन पोस्ट
कुछ लाइने दिल के बडे करीब से गुज़र गई....
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