मंगलवार, सितंबर 07, 2010

आज तब्बसुम लबों पे खिला ना सके


"सजदा किया है मन से , ख़ुदा   की  तरह ,
तुझे    मंदिर - मस्जिद  में  बिठा  न  सके.

मन   में    तू  बसा    है  ख़ुदा  की  तरह ,
 चाह कर   भी तुझे,  बाहर  ला   न सके.

फूलों       सा  सहेजा    है   ज़ख्मों     को,
उनके    रिसते     लहू     दिखा   न   सके.

बहलते   रहे    हम  भूलावे     में     मन  के,
 हक़ीक़त    से   खुद  को   बहला  न   सके.

दूर      होकर   भी    हम    कहाँ    दूर     हैं,
पास   आकर    भी      पास    आ   न   सके.

 निगाह      भर   के     देखा    उसने     हमें,
 पर  ज़रा   सा    भी  हम    मुस्कुरा  न  सके.

हमें      शगुफ़्ता          कहा      था       कभी ,
आज   तब्बसुम    लबों    पे    खिला   न  सके.

आरज़ू    थी     खियाबां-य- दिल    सजाने  की ,
ज़दा   से उजड़ा    सज़र फिर     लगा न    सके.

पूछते    हैं   कहनेवाले      ज़र्द      रंग    क्यों ?
मुन्तसिर   से     हैं    हम,     बता     न     सके.

ला-उबाली    सा       रहना    देखा    सभी     ने,
जिगर     में      रतूबत     है    बता    न     सके.

दौर-ए -  अय्याम      बदलती       रही      करवटें ,
शब् -ए- फ़ुरक़त में  लिखी  ग़ज़ल   सुना    न सके.

सोज़  -ए- दरूँ  कर देती     है  नीमजां     लोगों  को,
हम      मह्जूरियां    में   भी  तुम्हें   भूला   न   सके.

सजदा    किया    है  मन     से    ख़ुदा   की    तरह ,
तुझे      मंदिर  - मस्जिद   में    बिठा      न     सके.