सोमवार, मार्च 25, 2013

अब आग पर चलने जैसा, हो गया है चौराहा,

ख़ुदा  कैसा   लिखा  मुकद्दर   ,  क्या   रंजिश   निकाली ?
जिसे  भी     अपना   समझा , बदले   में   पाया    गाली  |

किस   बात   का   अचम्भा   किस   बात   का  है  झगड़ा,
स्वीस  बैंक  भर  उनके,     है    दामन    अपना    खाली |


क्योंकर वो  सुनेंगे  शोर   तेरे ,  हों   जिसके हाथ  सेंसर ?
कहीं   पे   बदनाम   मुन्नी   , कहीं  हुई     शीला  कहानी  |


अब   आग   पर  चलने   जैसा,    हो  गया     है   चौराहा,
मौवालियों  को दिखें  हर  आती-जाती   कलियाँ    साली |


कई  सराफ़त के पुतलों  के  घरों  में , आ   गया   बवंडर ,
एक  बेवा  ने  अपनी  मर्ज़ी    से   घर   क्या    बसा   ली  |

वो   मासूम   कली  रोकर ,पकड़ कर   पांव   उसके  बोली,
बाबा ब्याह  ना   कराना ,अभी  तो  मेरी  उमरिया    बाली |

 "रजनी मल्होत्रा नैय्यर "

मंगलवार, मार्च 19, 2013

हम दास्ताँ अपनी , दीवारों को सुनाने लगे .


जब   गीत    तिरंगे   की  शान   में    गाने   लगे,
कुछ  लोग सियासत   की   आग   भड़काने   लगे.

जब  पूछा    गया  शहीदों  का  नाम    और   पता,
चोर - उचक्के    नाम    अपना    लिखाने      लगे.

जूठे  बर्तनों   को    माँजकर   जिन्हें    थी    पाली ,
कह   मुस्काने  लगी,   मेरे   बच्चे     कमाने   लगे .

वक़्त   ने     चाल      ही      कुछ     ऐसी    बदली   ,
संभल  कर चलनेवाले  भी,  मुंह   की    खाने   लगे,

सुना   जबसे  होते    हैं    दीवारों    के    भी   कान,
हम  दास्ताँ   अपनी , दीवारों    को    सुनाने   लगे .

छोड़ दिया साथ , तक़दीर ने ज़माने   से  मिलकर ,
मन   में   हौसलों  के     दिये    जगमगाने    लगे .

कोयले   की खान  से  घुम    कर   जो    आ   गए,
काजल   की   कोठरी   से   दामन    बचाने     लगे,

जब   भी  कहा    ख्वाहिशों  से  बातें  तहज़ीब   की,
मुझसे  रूठ   कर    वो, मुंह   मोड़     जाने     लगे .

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

रविवार, मार्च 10, 2013

उनका क्या होगा , जो मोम से ढले हैं

पत्थर  पिघल गए  इन  सांसों  की  गर्मी  से,
उनका   क्या  होगा , जो  मोम   से    ढले  हैं ?

चलता    जा   रहा  मेरे  दिल  का    काफिला,
जाने  क्या है मंजिल जिस  ओर पग  चले   हैं .


मेरी   ही   अदालत   में   मेरा   ही   मुजरिम,
देकर  अगली   तारीख़  मुझको   ही छले   हैं ?

फूल     पर   पड़े   कि   शोलों   पर    पड़े    हैं , 
एक बिजली   कौंधती   है    जब पाँव  जलें  हैं


जैसे    देखता   हो   कोई    दिन   में    सितारे,
वैसे  गरीब   के   मन   कोई    ख़्वाब   पले   हैं.

जाते  हैं  कई   उड़  कर  बुलंदी   की   मकाँ   पर,
 वो  गिर कर  उंचाईयों     से     हाथ     मले   हैं |

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "

गुरुवार, मार्च 07, 2013

फिर पड़ेंगे ओले जरा सर तो मुड़ायिये



शर्त है  ये चट्टान    भी    गिर   जाएगी  ,मगर,
एक   बार    हौसलों की तूफान  को  तो  लाईये,

ढूंढने   पर गीदड़ों   का  काफ़िला  मिल  जायेगा,
एक      बार    ढूंढने  को   शहर      तो    जाईये.

हर    बार    की  तरह  ही दम  तोड़ती    हुई   है,
इस   बार   इस  विधि पर  रौशनी   तो  लाईये

ओहदे   के   दंभ   में  जो  आसमां   में   उड़  रहे,
हकीकत की ज़मीं पर  उन्हें खींच कर तो लाईये .

बदले मिजाज़  मौसम  के,  बदले  हालात   से
फिर   पड़ेंगे    ओले   जरा   सर  तो  मुड़ायिये  .

सोचते हो   थम   जायेगा गरजने से  ये बवंडर ,
"रजनी"  बरसने   को घटा  बनकर  तो  छाईए,