मंगलवार, मार्च 19, 2013

हम दास्ताँ अपनी , दीवारों को सुनाने लगे .


जब   गीत    तिरंगे   की  शान   में    गाने   लगे,
कुछ  लोग सियासत   की   आग   भड़काने   लगे.

जब  पूछा    गया  शहीदों  का  नाम    और   पता,
चोर - उचक्के    नाम    अपना    लिखाने      लगे.

जूठे  बर्तनों   को    माँजकर   जिन्हें    थी    पाली ,
कह   मुस्काने  लगी,   मेरे   बच्चे     कमाने   लगे .

वक़्त   ने     चाल      ही      कुछ     ऐसी    बदली   ,
संभल  कर चलनेवाले  भी,  मुंह   की    खाने   लगे,

सुना   जबसे  होते    हैं    दीवारों    के    भी   कान,
हम  दास्ताँ   अपनी , दीवारों    को    सुनाने   लगे .

छोड़ दिया साथ , तक़दीर ने ज़माने   से  मिलकर ,
मन   में   हौसलों  के     दिये    जगमगाने    लगे .

कोयले   की खान  से  घुम    कर   जो    आ   गए,
काजल   की   कोठरी   से   दामन    बचाने     लगे,

जब   भी  कहा    ख्वाहिशों  से  बातें  तहज़ीब   की,
मुझसे  रूठ   कर    वो, मुंह   मोड़     जाने     लगे .

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

6 comments:

रविकर ने कहा…

प्रभावी प्रस्तुति-
आभार आदरेया -

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत उम्दा प्रभावी गजल...

Recent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,

Unknown ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (20-03-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

Aap sabhi ko mera hardik aabhar ..

Rajendra kumar ने कहा…

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति,आभार.

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सटीक और प्रभावी अभिव्यक्ति...