बुधवार, अक्तूबर 10, 2012

जल रहा दिया अब तक अपनी तकदीर से

तेरे  ख्याल   से    कर    लिए   दिल  को    रौशन,
मगर  डर     है   ज़ुबां    पर   लाएँ     तो     कैसे ?

जल रहा  दिया  अब   तक    अपनी   तकदीर  से,
 मगर डर   है  छोड़  तूफान    में जाएँ    तो   कैसे ?

करने लगे    हैं  हर     तरफ  अब    ग़म  पहरेदारी ,
खुशियाँ     घर        में          आएँ       तो       कैसे ?

मुफ़लिसी बन   गयी    जिनका उमरभर  का साथ ,
वो   ईद     और      दिवाली    मनाएँ     तो     कैसे ?

बहुत  कुछ   बदल     दिया    मगरीब    की  हवा ने,
पर   अपनी    तहज़ीब   :रजनी" भुलाएँ    तो    कैसे ?

12 comments:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

वाह,,,,,बहुत उम्दा गजल,,,,रजनी जी,,,

RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

उम्दा ग़ज़ल!

अरुन अनन्त ने कहा…

बेहद उम्दा ग़ज़ल बधाई स्वीकारें यहाँ भी पधारें www.arunsblog.in

धीरेन्द्र अस्थाना ने कहा…

गमों की जब पहरेदारी हटेगी तब ही खुशियाँ आ सकती हैं
एक नई दिशा देती पंक्ति ,

और लाख जमाना बदल जाय हम अपनी तहजीब नही भुला सकते!
नातिक मूल्यों से सरोकार दर्शाती अभिव्यक्ति!

साधुवाद!

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

Aapsabhi ko shukriya .........

Vandana Ramasingh ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

अच्छी गज़ल...

अनु

Prakash Jain ने कहा…

Dar hai ki jubaan pe laayein to akissee.....Waah

bahut hisundar...


मेरा मन पंछी सा ने कहा…

कमाल की गजल..
बहुत ही बढियां....
:-)

kuldeep thakur ने कहा…

सुंदर अति सुंदर एक नजर इधर भी... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

कमाल की गजल..
बहुत बढ़िया रचना
:-)

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत सुन्दर शव्दों से सजी है आपकी गजल ,उम्दा पंक्तियाँ .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.