सोमवार, अक्तूबर 15, 2012

मुरझा गयी हैं कलियाँ बिन बागवान के

एक ग़ज़ल महबूब के नाम ..........

हो जाती ग़ज़ल खिलकर गुलाब सी,
एक बार वो फिर से दीदार दे जाते |

हो जाती मदहोश लिपट कर "चांदनी रात"
संग जागकर फिर वही ख़ुमार दे जाते |

ले जाते मेरी भीनी सी खुशबू की सौगात
एक बार पहलू में आकर वो प्यार दे जाते |


मुरझा गयी हैं कलियाँ बिन बागवान के,
उन कलियों को फिर वही बहार दे जाते |

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
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8 comments:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

वाह ,,,क्या बात है बहुत सुंदर गजल,,,रजनी जी,,

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sangita ने कहा…

गजलों कि रचना में सदा कि तरह सुनहरा दखल भावविभोर कर देती है आपकी गजल |

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

bahut bahut shukriya aap sabhi ko is sneh ke liye ......

मदन शर्मा ने कहा…

बहुत ही अच्छा लिखा आपने .

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत खूब..
बहुत प्यारी,और मनभावन गजल..
शानदार..
:-)

विभूति" ने कहा…

behtreen gazal...

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…


एक बार वो फिर से दीदार दे जाते …
बहुत ख़ूबसूरत !

रजनी मल्होत्रा नैय्यर जी
अच्छी रचना अच्छे भाव !
ग़ज़ल के बहुत क़रीब है … अच्छे काव्य-प्रयास के लिए बधाई !

लिखती रहें … और श्रेष्ठ लिखती रहें …
शुभकामनाओं सहित…

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

Hardik aabhar aap sabhi ko yahan tak aayen, mai kuchh samay se blog zagat se dur rahi .......