गुरुवार, जुलाई 19, 2012

चला कहाँ बलखाते लश्कर सहाब का

क्यों न कहूँ इसे मौसम की  साहिरी,
बूटे-बूटे में सब्ज़ की सावनी छटा है |


चला कहाँ बलखाते लश्कर सहाब का,
ऐसे लगे किसी की जुल्फों की घटा है |


झील के सीने पर रवाँ हंस का जोड़ा,
शायद एक - दूसरे पर मर   मिटा है  |

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"