क्यों न कहूँ इसे मौसम की साहिरी,
बूटे-बूटे में सब्ज़ की सावनी छटा है |
चला कहाँ बलखाते लश्कर सहाब का,
ऐसे लगे किसी की जुल्फों की घटा है |
झील के सीने पर रवाँ हंस का जोड़ा,
शायद एक - दूसरे पर मर मिटा है |
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
बूटे-बूटे में सब्ज़ की सावनी छटा है |
चला कहाँ बलखाते लश्कर सहाब का,
ऐसे लगे किसी की जुल्फों की घटा है |
झील के सीने पर रवाँ हंस का जोड़ा,
शायद एक - दूसरे पर मर मिटा है |
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"
1 comments:
बहुत सुन्दर अशआर।
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