शनिवार, जनवरी 30, 2010

जो छोड़ गया मझदार में उसे याद क्या रखना

गीत बनते हैं मगर मै गा नहीं सकती,
हंसी की चाह है, लेकिन मुस्कुरा नहीं सकती|

अधूरे ख्वाब जाने क्यों आँखों में पलते हैं,
थोड़ी सी ख़ुशी मिले,तकदीर जलती है|

चल रही सांसे भी उखड़ी सी होती है,
अपनी धड़कनों पर भी अपना हक नहीं होता|

सागर की विरह में व्याकुल नदियाँ मचलती हैं,
पर अधीर न हो, उससे वो मंद गति से मिलती  हैं |

जो राह खो चूका मंज़िल  वोह   पा  नहीं सकता,
जो दर्पण टूट गया हो वोह  फिर से जुड़ नहीं सकता |

अधूरी तस्वीर का कोई ख़रीदार  नहीं होता,
नम  आँखों का मोती बेकार नहीं होता |

रुकी हुई मौज का राह क्या तकना,
जो छोड़ गया मझदार में उसे याद क्या रखना |
.

शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

क्या किस्मत पाई है किनारों ने

"लहरों की थपेड़ों को साथ साथ सहते हैं दोनों,
आमने सामने होकर भी मिल नहीं पाते,

 क्या किस्मत पाई है किनारों ने .."

मंगलवार, जनवरी 26, 2010

जिससे मेरी हर सुबह हंसी, वो आफ़ताब है तू

जिससे मेरी हर सुबह हंसी,
वो आफ़ताब  है तू .

मेरे सोख से रात का,
महताब है तू.
जिसके खिलने से
दिल का गुलशन महके,
वो गुलाब है तू.

मेरे रूप पे जो छाया,
वो सबाब है तू.

हर पल जो सजते हैं आँखों में,
वो रंगीन ख्वाब है तू.
********************

प्रीत  की , बूंदों  को,
ये आँखें तरसी थी कभी.

 उसकी अगन से ही जलकर,
ये आँखें बरसी थी कभी.

हर दाहकता को तेरे प्रीत ने,
मिटा दिया.

भर गया अंक मेरा,
सागर सा जहाँ मेरा बना दिया.

"रजनी" 

सोमवार, जनवरी 25, 2010

, चोट मिले हैं, उनसे, या ज़ख्मों पे, मरहम लगाये हैं.

दर्द ऐसा है जो ,
नज़र न आये,
और पीड़ा को ,
सहा भी न जाये,
नैन और लब ,
मूक बन गए,
दोनों ही,
 एहसास को ,
कौन जता पाये,
अंतर करना ,
मुश्किल है,
चोट मिले हैं,
उनसे,
या ज़ख्मों  पे,
मरहम लगाये हैं.

"रजनी"

शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

हे मातृभूमि,हे भारतमाता,

आप सभी को गणतन्त्र दिवस की हार्दिक बधाई.
एक रचना भारत माँ को समर्पित.......

हे मातृभूमि,हे भारतमाता,
तू हमारी आन है,तू हमारी शान है,
तेरे चमन के खिलते सुमन हम,
तेरे चरणों में माँ जान है,

सदा रहे तेरा चोला धानी,
तू खिलती रहे बन शहजादी,
है हमको प्यारी माता,
ये तेरी मेरी आज़ादी,

सदा हिमालय तेरा ताज रहे,
तेरा सब पर ही माँ राज रहे,
कल,कल करते सागर नदियाँ,
तेरे चरणों का पखार करे,

आसमान पे माँ ये तिरंगा,
हरदम ही फहराएगा,
जिसकी होगी शामत आई,
वो ही हमसे टकराएगा,

किसके दूध में इतनी ताकत,
जो तुझे हाथ लगाएगा,
तेरे नैनो के ज्वाला से,
वो भस्मीभूत हो जायेगा,

बच्चा बच्चा भरा देशप्रेम से,
भगत सिंह ,और मनु बाई,
आज लड़ते हैं जाति पाति में पड़,
अगर जरूरत पड़ जाए,
तो बन जाएँ भाई भाई,

तेरे चोले पे ए माता,
दाग ना कोई आएगा,
हर हाथ उठने से पहले,
धरा में काट गिर जायेगा,

वो होगा किस्मत वाला,
जो भारत को जन्मभूमि पायेगा.


BY--------- RAJNI NAYYAR MALHOTRA

सोमवार, जनवरी 18, 2010

हर शख्स पे तेरा चेहरा नज़र आने लगा है

अब तो हर शय पर तू छाने लगा है,
हर शख्स पे तेरा चेहरा नज़र आने लगा है.

चाहत में मिलेगी ऐसी सजा, मालूम न था,
याद रह ,रह कर मुझको सताने लगा है.

भर जाते हैं ख्वाब आँखों में, नींद आये बिना,
तू तो जगती आँखों में ,सपना दिखाने लगा है.

खामोशियाँ तेरे करते हैं बेचैन मुझे,
रहना तेरा इस कदर ,मुझे पागल बनाने लगा है.

कभी वक़्त को हम आजमाते थे,
आज वक़्त हमें ,आजमाने लगा है.

कटते ही नहीं हैं ये लम्हे ये घड़ियाँ,
मौसम भी अजीब रंग दिखाने   लगा है.

अब तो हर शय पर तू छाने लगा है,
हर शख्स पे तेरा चेहरा नज़र आने लगा है.
BY---------- RAJNI NAYYAR MALHOTRA

शनिवार, जनवरी 16, 2010

वक़्त की आंधी ने हमें रेत बना दिया

...

वक़्त   की   आंधी   ने   हमें  रेत   बना  दिया,
हम   भी     कभी    चट्टान   हुआ     करते  थे |

मौसम   के   रुख   ने  हमें   मोम   बना   दिया,
हम भी   कभी   धधकती  आग   हुआ  करते थे|

आज   हिम    सा शून्य   नज़र  आ रहे   हैं  हम,
हम   भी    कभी   रवि   से तेज़ हुआ   करते  थे|

एक     झंझावत से   गिरे पंखुडियां , शूल  रह गए
हम भी कभी गुलाबों से भरे गुलशन हुआ  करते थे|

विवशता    ने हमें   सिन्धु   सा   बना   दिया है शांत,
हम भी कभी मदमस्त उफनती सरिता हुआ करते थे|.

वो   अपने     ही     थके      क़दमों    के   निशां   हैं,
जो   कभी    हिरणों    सी  चौकड़ियाँ   भरा करते थे.|

वक़्त   की     आंधी    ने     हमें     रेत   बना   दिया,
हम    भी        कभी    चट्टान    हुआ     करते      थे|

शुक्रवार, जनवरी 15, 2010

वो रह लिए जिंदा, जिनके दर्द आंसुओ में बह गए|

मेरी ये रचना जो मैंने बहुत पहले लिखी थी...........आज आपसब के बीच ...

रुंध कर रह गयी आवाज़ मेरी,
जब आपको सामने पाई|

खुलते, खुलते रह गए,
लब मेरे,
दिल से बात लब तक ना आ पाई,

आपकी ख़ामोशी को हम समझ ना पाए ,
मेरे आवाज़ में थी वो दम,
जो आप ना सुन पाए|

दर्द से बना सैलाब मन के अंदर,
बहुत तड़पा,बहुत मचला,
पर सागर ही रहा,
नदियाँ बन कर बह ना पाए|

हसरत थी कुछ कहने की,
रह गया बस,फ़साना,
हम कह ना पाए,आप सुन ना पाए|

छोटा सा दर्द ये,
नासूर बन कर रह गया,
वो रह लिए जिंदा,
जिनके दर्द आंसुओ में बह गए|

शनिवार, जनवरी 09, 2010

पता है मुझे, तुम इक्कीसवी सदी में जी रही हो|

अभी कुछ दिनों पहले मेरी एक रचना आई थी जिसका शीर्षक मैंने "पछतावा"रखा था| उस रचना में मैंने समाज में नारी के ऊपर फब्तियां करते पुरुषों(मनचले लड़कों ) को दिखाया था,इस वर्ग पर कटाक्ष था मेरे लेख में|पर,उस लेख से मै पूरी तरह संतुष्ट नहीं थी,और कुछ आवाम भी ,जिनके प्रश्न मुझे आये रजनी जी हर जगह मर्द गुनाहगार नहीं होता, उनमे लड़कियों का भी दोष होता है |मै भी इस बात को मानती हूँ ,ताली एक हाथ से नहीं बजती|

ये लेख उन कलियुग की बालाओं के लिए है,जिन्होंने बिना हाला के पान से ही ,मदमत कर रखा है अपने अदाओं से,जिस्म की नुमाइश से,तंग हाल कपड़ों से|जिसमें देख कर किसी के भी ह्रदय में हलचल मच जाये,कम्पन हो जाये अंतरात्मा में|

नारी का गहना "शर्म " को कहा गया है,शर्म का अभिप्राय दो तरह का होता है|एक निगाहों में शील,दूसरा वैसे वस्त्र,वैसी अदाएं ,जो आपको खुबसूरत दर्शाती हों,मोहक लगनेवाली हों|
ना की नशीली हावभाव से पुरुष वर्ग को आकर्षित करती हों|

परदे में रहने दो,परदा ना उठाओ,
ऐसे ही रहा तो,जीना मुश्किल हो जायेगा  |

पर्दानशीं होती रही जो बेपर्दा,
शर्म को भी शर्म आ जाएगी|

घूँघट उतना ही उठाओ कि,
चाँद दिख जाए

इतना भी ना कि,सरक जाए,
हो जाओ पानी,पानी|

ये कलियुग कि अप्सराओं,
मेनका ना बन जाओ

क्योंकि,यहाँ कोई विश्वामित्र नहीं|

महाभारत  में हुआ  ,
द्रौपदी का  चीरहरण |

पर आज तो चीरहरण की जरुरत ही नहीं,
क्योंकि,तुम ही खुद द्रौपदी हो,
खुद हो दुर्योधन,

परदा की वजाय दिखाती हो यौवन|

जब खुद कहती हो ,
आ बैल,मुझे मार,तो क्या करे संसार|

खुद ही लगा कर आग,
कहती हो, कैसे बचाऊं दामन|

दामिनी सी चपला रहोगी,
तो होगा चंचल,
किसी का भी मन |

कहते हैं अमूल्य वस्तु को
सहेज कर रखा जाता है
सहेजो तन को,अमूल्य है ये धन|

पता है मुझे,
तुम इक्कीसवी सदी में
जी रही हो|

फिर भी ये समझ लो,
किसी भी चीज़ की अति,
विनाश का कारण बन जाती है|

"अति का भला न बोलता,
अति की भली ना चुप,
अति की भली न बरसना,
अति की भली ना धूप"

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा"

सोमवार, जनवरी 04, 2010

पछतावा

मेरी ये रचना समाज के कुछ उस भाग के लिए है जो आज आधी समाज को ढक चूका है...
हो सकता है ये रचना आप सबको पसंद न आये,पर ये मैंने जो देखा है वो ही आज फिर अपने कलम को लिखने को कहा.........आप सब की प्रतिक्रिया की आशा रखती हूँ.....

मेरी ये रचना उस नज़र के लिए है जो सचमुच नारी के रूप में एक माँ या बहन को नहीं देख पाते...(आपसब तक ये रचना रखने का अभिप्राय बस इस धारणा को बदलने की एक छोटी सी कोशिश है ......मेरी कोशिश को अपना साथ दें..........
ये वाक्या कहीं आपके साथ भी तो नहीं घटित हो रही , कहीं आप भी इस श्रेणी में सुमार तो नहीं,यदि हैं तो खुद को बदल लीजिये, कहीं ये पछतावा आपको भी न हो जाए...


हर नज़र अब तो सेक्स तलाशती है एक औरत में, चाहे वो ब्याही हो या कुंवारी ...
आज ये कहते हुए मुझे काफी अफ़सोस हो रहा कि जिस तेज़ी से जमाना बदल रहा उसी तेज़ी से लोगों के सोंच भी बदल गए,और बदले भी ऐसे कि उनके सोंच में हर शिष्टता ,भावना ना जाने कहा दफ़न हो गए..


कई दिनों से वो बाइक से करता था पीछा

girls college  की आती,जाती लड़कियों का

उनके सर से पाँव तक के रचना को देख कर

फब्तियों के तीर से उन्हें बिंधा करता था

36, 28, 34...... अरे वाह काली नागिन है यार,
एक बार पलट कर देख ले तो बिना इसके डसे ही
मर जाऊं,

वो बार,बार college  के गेट तक पहुँच रही लड़कियों के

एक ग्रुप को देख चिल्लाता रहा,ए पलट,एक बार पलट

जिसे उसने काली नागिन कहा था

वो काले रंग की लिबास में लड़की, पलट कर देखा ही नहीं

उस लड़के के सामने जाकर खड़ी हो गयी,लड़की को सामने देखते ही ,

वो शर्म से अपनी निगाहें झुका लिया,क्योंकि वो लड़की कोई और नहीं

उस लड़के ही छोटी बहन निकली,शर्म से बहन से निगाहें भी नहीं मिला पाया....

आज इस भूख ने भाई बहन के रिश्ते को भी लहुलुहान कर दिया है.............

मेरे इस रचना के लिए आपके प्रतिक्रिया की जरुरत है...........

शुक्रिया ........


BY RAJNI NAYYAR MALHOTRA....... 9:25PM....

शनिवार, जनवरी 02, 2010

दो बूंद आंसू तेरे, मेरे लिए डूबने को काफी है .

 स्याह रात में,
तेरा चेहरा नज़र नहीं आया,

तभी मन मेरा,
तेरा दर्द पढ़ नहीं पाया,

जब पड़ी निगाहें मेरी,
तेरे चेहरे पर,
बहुत देर हो चुकी थी,

तेरे आँखों की लालिमा ने ,
सबकुछ बयाँ कर दिया,

सजा तो दे दिया तुम्हें,
पर गुनाहगार खुद को पाया,

वो कहना तेरा,होके जार,जार,
पहली ही गलती पर फांसी की सज़ा दे दी,

सजा तो दे दिया तुम्हें,
पर गुनाहगार खुद को पाया,

मेरे गुनाहों की सजा,
इससे बड़ी क्या होगी,

दो बूंद आंसू तेरे,
मेरे लिए डूबने को काफी है .

तेरे एक अनकहे शब्द में भी,
कितने उभरे भाव है,
क्यों नहीं देख पाए मैंने,
जो मन पे छाये घाव हैं,

तेरे आँखों की लालिमा ने ,
सबकुछ बयाँ कर दिया,

जब पड़ी निगाहें मेरी,
तेरे चेहरे पर,
बहुत देर हो चुकी थी.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "