गुरुवार, मई 21, 2015

बुजुर्गों का भविष्य

लटकती झुर्रियां
झूलते हाथ-पांव ,
ढूंढ रहे
मुक्ति का रास्ता |
भटक  रहा  सड़कों पर
बिता  हुआ कल
सरहद बन गयी जबसे
घर  की दीवारें ...
यादें नापती हैं, ज़मीं
कभी आकाश |
हथियार डाले उनका  आज
बैठ गया है
वील चेयर पर ...
पुकार रहा
धराशायी सिपाही सा ,
बुजुर्गों का भविष्य !
जी रहा है कछुआ
छिपा कर ,
खोल के भीतर का रहस्य ...
जो बिलकुल सपाट है  |

" रजनी  मल्होत्रा नैय्यर " 

सोमवार, मई 11, 2015

साज़ -ए दिल पर गीत मोहब्बत के गाते रहो



  बाद-ए-मुख़ालिफ़ में चिराग़ जलाते रहो
 दिल मिले या न मिले हाथ  मिलाते  रहो

  तिश्नगी बुझ जाएगी समंदर की' अगर
  बादलो  मुसलसल बूंद -बूंद बरसाते  रहो


   माना की एक  फ़ासला  है हमारे दरमियाँ
   इतना करम करो की तुम  याद आते रहो

  ग़फलत में  डूबी   हुई   है दुनिया सारी
 तन्हा   अपने हौसलों  से तुम जगाते   रहो

 नफ़रतों से भरी   इस जहाँ  में रजनी
साज़ -ए दिल पर गीत मोहब्बत के गाते रहो





हर ख़याल  ,  हर सवाल,
हर सपनों को  पूरी करती हैं आँखें |
जुबां जब साथ न दे
सैकड़ों सवाल करती हैं आँखें ...

दिल में हो खुशियाँ  भर जाती है
ग़म में भी  छलक  जाती हैं  आँखें.

जज़्बाती , कभी मासूम,  
कभी     अंगार   भरी

कुछ बोलती सी
कभी गुमसुम,
कभी शरारत   है  आँखें.

सागर    कभी      नदिया
कभी बारिश बन  बरसती है.

सपनों   में    खोयी,
नींद     से      बोझिल,
कभी   जगती हैं  आँखें.

ज़िन्दगी            सी    हंसी,
कभी  मौत   सी      गुमसुम
वक़्त सी चंचल  होती हैं आँखें.

रविवार, मई 10, 2015

संस्कार



संस्कार से पोषित पौधे,
पनपते हैं
अपनी ही धरातल  में,
अपने दायरे और
मयार से बंधित
और अनुशंषित |
संस्कार विधान
कितना अनूठा है
अपने आप में ,
बहुमुखी और
विस्तारित
जीवनीशैली से
बंधा हुआ
देता है विस्तार
असंख्य अनुभूतियों को ,
जो मर्यादित और
 अनुशंसित  सोच से
 फलित  होती है
जब वही मर्यादित  बंधन
उच्श्रृंखलता
का रूप ले लें तो
 टूट जाते हैं सारे दायरे
तार तार हो जाती है
मर्यादित संस्कार
जिसे विभूषित करते आये हैं
मनीषी अपनी
कलाओं  में, पांडुलिपियों में,
और
किया गया है जिसका वर्णन 
प्राकृतिक
उपमाओं में
कभी कभी गयी हैं
प्रश्नो के घेरे में
ये अजंता एलोरा की
भीति चित्रावलियाँ भी ,
जिन्हे उकेरे गए थे
कभी
मानवीय संवेदनाओं को
जगाने के लिए,
और, पल्ल्वित कर दिए गए थे
उनसे एक अंकुर
जो धीरे-धीरे
 प्रस्फुटित हुआ
बनकर प्रेम का
 एक पौधा |
सोये हुए अंग -प्रत्यंग में
 जीवंत
और स्फुरित करती
भरती हुई संचारित 
शक्तियों को
कभी कभी ये जीवंत
भीति चित्रावलियां,
भर देती
मादकता और
छलकता प्रेम
जिसे जाना गया
वासना के नाम से |
पर क्या संभव है
संसार में सबका
आचरण से
शंकराचार्य  या गौतम हो जाना ?
संसार के भीति
को भी चाहिए
कुछ चित्रावलियाँ,
जिससे वो उकेर सके आनेवाली
अनुशंसाओं को,
भविष्यवली वो भी सजाये
अपने होने का उसे भी
एहसास चाहिए
बनी रहे निरंतरता
चलता रहे संसार
बस बदले गए तो युग
जैसे बदलता है हर वर्ष
गत और आनेवाले के बीच
रह जाती है
तो वो
स्मरणीय चिन्ह
 जिन्हे यादें
या इतिहास कहते हैं ...
घूमता रहता है संस्कार
अपने अक्ष पर |
कभी कभी इसके बिगड़ने पर
लांक्षित होती है मर्यादा…
जैसे  हम दोष देते हैं
प्रकृति को ,
आनेवाली सुनामी अथवा अन्य
हादसों  के लिए |
उसी तरह संस्कार से विहीन
होती पीढ़ियां,
संस्कार को लांघती पीढ़ियां
अमर्यादित कर देती हैं
अपने ही जनक को


"रजनी मल्होत्रा नैय्यर "