आ जाती थी हया की रेखाएं,
आँखों में
जब भी ढल जाता था ,
कांधे से दुपट्टा |
शर्माए नैन तकते थे
राहों में
जाने -अनजाने निगाहों को,
जब भी हट जाता वक्ष से
आंचल |
ख़ुद को
लाज के चादर में
सिमट कर
एकहरी
कर लेती थी ,
जब भी होती थी हवाओं संग
दुपट्टे की आँख मिचौली ,
हवाओं के रफ़्तार से ही
हाथ थामते थे आँचल को ...
पर ये क्या हो गया ?
अचानक कैसी आंधी आई
उड़ा ले गयी
निगाहों का पानी !
अब दुपट्टे
कांधे का बोझ बन गए
आंचल वक्ष पर थमते नहीं
ढलक जाते हैं !
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
7 comments:
हड़प्पा कालीन सभ्यता की बात करने लगीं आप रजनी मल्होत्रा .ये कैट वाक् का दौर है ,ड्रेस स्लिप एक फैड है अब यहाँ .हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मल मल का ओ !जी ,ओ! जी लहर लहर लहराए मेरा लाल दुपट्टा मल मल का .अब तो शुक्र करो लडकी कुछ पहने तो है .ड्रेस पे ऊंगली न उठाओ .शुक्रिया मनाओ .
कैग नहीं ये कागा है ,जिसके सिर पे बैठ गया ,वो अभागा है
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2012/09/blog-post_2719.html
achchi lagi apki kavita....
सामाजिक परिवर्तन पर प्रश्न उठाती अच्छी रचना
हम्म्म्म.......
तमाशा देखिये बस.....कुछ कहने का ज़माना नहीं रहा अब....
अनु
sahi kaha Anulata jee ne:)
aap sabhi ko mera hardik aabhar.......aapne is mudde ko apni sahmti di.......
उत्कृष्ट प्रस्तुति आज बुधवार के चर्चा मंच पर ।।
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