हर नारी के अन्दर ,
होती है एक नारी ।
कोमल, शांत,मृदुल,
कठोर ।
नारी जोड़ती है
तिनके जैसे घर को,
दे देती है रूप नीड़ का ।
करती रहती है बचाव,
इसमें रहनेवाले,
पलनेवाले, व् संग चलनेवाले का |
कभी बनकर धाय, कभी जन्मदात्री,
कभी सहचरी |
और भी ना जाने कितने नामों से
उपनामों से,
रूपों से संबोधन पाती है |
सहती है जीवन में आये ताप को,
सहती है कभी संताप को
जलता है जिस्म , कभी आत्मा |
कभी रोती है
नारी होने के श्राप से,
कभी नारी होने के गर्व को
कंधे पर ढोती है |
जब कभी परेशानियाँ घेर लेती हैं
अमावस का चाँद जैसे घिर जाता है |
और " नारी " -------- ना हारी को सिद्ध कर देती है,
हर एक उलझन के गांठ को
खोल देती है आहिस्ता- आहिस्ता ,
बादलों से छँटकर जैसे आकाश हो जाता है |
बना देती है
एक उजड़े वीरान झोंपड़े को भी ,
अपने संस्कार, कर्तव्य, और परस्पर सौहार्द से |
तैयार कर देती है परिवार की पृष्ठभूमि,
ठीक वैसे ही,
जैसे मिटटी गारे से दीवार की ईंट ,
हो जाता है एक महल तैयार |
शांत कोमल, मृदुल नारी भी
बनना चाहती चाहती है
कठोर,
पर रोक लेती है
ख़ुद को इस अवतरण में आने से,
जब देखती है
मासूम बच्चों को,
जब देखती है जीवन की धूप में
दिनरात पिसते हुए
सहचर को,
और कठोरता के सांचे में
ना ढल कर
वो फिर से बन जाती है
कोमल नारी |
होती है एक नारी ।
कोमल, शांत,मृदुल,
कठोर ।
नारी जोड़ती है
तिनके जैसे घर को,
दे देती है रूप नीड़ का ।
करती रहती है बचाव,
इसमें रहनेवाले,
पलनेवाले, व् संग चलनेवाले का |
कभी बनकर धाय, कभी जन्मदात्री,
कभी सहचरी |
और भी ना जाने कितने नामों से
उपनामों से,
रूपों से संबोधन पाती है |
सहती है जीवन में आये ताप को,
सहती है कभी संताप को
जलता है जिस्म , कभी आत्मा |
कभी रोती है
नारी होने के श्राप से,
कभी नारी होने के गर्व को
कंधे पर ढोती है |
जब कभी परेशानियाँ घेर लेती हैं
अमावस का चाँद जैसे घिर जाता है |
और " नारी " -------- ना हारी को सिद्ध कर देती है,
हर एक उलझन के गांठ को
खोल देती है आहिस्ता- आहिस्ता ,
बादलों से छँटकर जैसे आकाश हो जाता है |
बना देती है
एक उजड़े वीरान झोंपड़े को भी ,
अपने संस्कार, कर्तव्य, और परस्पर सौहार्द से |
तैयार कर देती है परिवार की पृष्ठभूमि,
ठीक वैसे ही,
जैसे मिटटी गारे से दीवार की ईंट ,
हो जाता है एक महल तैयार |
शांत कोमल, मृदुल नारी भी
बनना चाहती चाहती है
कठोर,
पर रोक लेती है
ख़ुद को इस अवतरण में आने से,
जब देखती है
मासूम बच्चों को,
जब देखती है जीवन की धूप में
दिनरात पिसते हुए
सहचर को,
और कठोरता के सांचे में
ना ढल कर
वो फिर से बन जाती है
कोमल नारी |
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
14 comments:
बहुत सुन्दर भाव |
आभार रजनी जी ||
बहुत बढ़िया रचना के भाव,सुंदर अभिव्यक्ति रजनी जी,.....
MY RECENT POST.....काव्यान्जलि.....:ऐसे रात गुजारी हमने.....
बेहतरीन
सादर
सार्थक कविता नारी पर ....
शुभकामनायें ...
bahut lajabaab likha hai nari na--hari sabit kar deti hai...vaah
रजनी जी बहुत सुन्दर ...नारी काश ऐसे ही ना-हारी बनी रहे ...इस जिन्दगी के तमाम उत्ताप सह कर वो और निखरे कोमल बनाये सुसंस्कृत रहे ..लोगों का भरपूर सम्मान पाए रचे बनाये ..ऐसी हर नारी को नमन ..
भ्रमर ५
रजनी जी अपने ब्लॉग की चौडाई कुछ अडजस्ट कर लें दायीं तरफ हिंदी बनाने का उपकरण कुछ कट रहा है इस तरफ कुछ बढ़ा लें ले आउट में जा कर
भ्रमर ५
नारी के सार्थक व्यक्तित्व को परिभाषित कर रहीं है |
बधाई|
संवेदनशील कविता...आभार
आपकी पोस्ट 3/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा - 868:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
सटीक और सार्थक रचना ... बधाई
नारी आखिर कब हारी
बहुत सुन्दर
Aap sabhi ke is sneh k liye mera hardik aabhar ,,,,,,,,,,
bahot khoobsurat......
achchhe bhav aur chintan ka samanvay hai kavita mein
एक टिप्पणी भेजें