रविवार, जून 27, 2010

सागर में रहकर भी, प्यासे रह गये



सागर में रहकर भी,
प्यासे रह गये,
खुशियों के ढेर में भी,
उदास रह गये,
मोम लिए बर्फ पर थे,
फिर भी पिघल गये,
ठंडा था दूध,फिर भी ,
ठन्डे  दूध से जल गये,
मृग मरीचिका मन का भ्रम है,
फिर भी सोने का देखा हिरन,
तो मन मचल गये,
बंद रखा था पलकों को,
मोती छूपाने के लिए,
बंद पलकों से भी,
मोती निकल गये,
हर धड़कन को छू लें,
वो एहसास बन गये,
हम आदमी थे आम,
अब ख़ास बन गये,
सागर में रहकर भी,
प्यासे रह गये,
खुशियों के ढेर में भी,
उदास रह गये,
हम आदमी थे आम,
अब ख़ास बन गये. 


5 comments:

संजय भास्‍कर ने कहा…

वाह!.... सुन्दर कविता

संजय भास्‍कर ने कहा…

बेहतरीन उपमाएं इस्तेमाल कीं आज आपने..

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत से गहरे एहसास लिए है आपकी रचना ...

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

sanjay ji ye to aapki sonch hai jo iski gahraai ko samjh kar rachna ko samman diya aapne .........aabhar aapka

Subodh Kumar ने कहा…

bahut achaa ............