चलने की कर तू शुरू ,
मंजिल की तलाश में,
राह का क्या है ,
वो खुद ही बन जायेगा,
मानती हूँ,
ठोकर भी ,
आते हैं राह में,
तू बन जमीं ,
किसी के वास्ते ,
कोई तेरा,
आसमां बन जायेगा.
"रजनी "
बुधवार, मई 05, 2010
तू बन जमीं किसी के वास्ते
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8 comments:
चलने की कर सुरुआत
मंजिल की तलाश में
राह का क्या
वो खुद बन जाएगी
मानती हूँ ठोकरें भी खाओगे राह में
तू बन ज़मी किसी के वास्ते!
थोडा सा फेरबदल किया है बुरा मत मानियेगा!
कोई तेरा आसमा बन जाएगा ! ये पंक्ति छूट गयी थी!
खूबसूरत पंक्रियां.. लिखती रहें। साधुवाद
सुन्दर कविता में छुपा एक प्रेरक सन्देश .....धन्यबाद
http://athaah.blogspot.com/
बढ़िया है.
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
bahut hi gahre ehsaason kee zameen hai
aap sabhi ko hardik naman ,aapsbka sneh milta rahe
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