"समझ ना पाए वो ,
चाहत हमारी बताने के भी बाद ,
कभी आंसू हटाया था रुखसार से मेरे,
आज डूबने को छोड़ गए ,
भर कर सैलाब."
बुधवार, सितंबर 08, 2010
आज डूबने को छोड़ गए , भर कर सैलाब.
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 8.9.10 5 comments
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मंगलवार, सितंबर 07, 2010
आज तब्बसुम लबों पे खिला ना सके
"सजदा किया है मन से , ख़ुदा की तरह ,
तुझे मंदिर - मस्जिद में बिठा न सके.
मन में तू बसा है ख़ुदा की तरह ,
चाह कर भी तुझे, बाहर ला न सके.
फूलों सा सहेजा है ज़ख्मों को,
उनके रिसते लहू दिखा न सके.
बहलते रहे हम भूलावे में मन के,
हक़ीक़त से खुद को बहला न सके.
दूर होकर भी हम कहाँ दूर हैं,
पास आकर भी पास आ न सके.
निगाह भर के देखा उसने हमें,
पर ज़रा सा भी हम मुस्कुरा न सके.
हमें शगुफ़्ता कहा था कभी ,
आज तब्बसुम लबों पे खिला न सके.
आरज़ू थी खियाबां-य- दिल सजाने की ,
ज़दा से उजड़ा सज़र फिर लगा न सके.
पूछते हैं कहनेवाले ज़र्द रंग क्यों ?
मुन्तसिर से हैं हम, बता न सके.
ला-उबाली सा रहना देखा सभी ने,
जिगर में रतूबत है बता न सके.
दौर-ए - अय्याम बदलती रही करवटें ,
शब् -ए- फ़ुरक़त में लिखी ग़ज़ल सुना न सके.
सोज़ -ए- दरूँ कर देती है नीमजां लोगों को,
हम मह्जूरियां में भी तुम्हें भूला न सके.
सजदा किया है मन से ख़ुदा की तरह ,
तुझे मंदिर - मस्जिद में बिठा न सके.
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 7.9.10 4 comments
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गुरुवार, अगस्त 26, 2010
हर जर्रे में तू है ये अहसास तो है
गुलजार है गुलशन मेरा आज भी तसव्वुर में ,
हर जर्रे में तू है ये अहसास तो है ,
उन कहकहों का क्या करूँ ?
जो याद आ कर आज दिल को जलाती हैं ".
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 26.8.10 9 comments
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शनिवार, अगस्त 21, 2010
बाबुल की लाडली आँखों का तारा
किसी और का घर महकाती हैं .
जन्म के बंधन को छोड़ कर ,
रस्मों के बंधन को जतन से निभाती हैं.
जिस कंधे ने झूला झूलाया, जिन बाँहों ने गोद उठाया,
उस कंधे को छोड़ किसी और का संबल बन जाती हैं.
बाबुल की लाडली, आँखों का तारा ,
बाबुल से दूर किसी और का सपना बन जाती हैं.
बाबुल के जिगर का टुकड़ा, वो गुड़िया सी छुईमुई,
एक दिन ख़ुद टुकड़ों में बँट कर रह जाती हैं .
सींच कर बाबुल के हाथों , किसी और की हो जाती हैं,
मेहंदी सी पीसकर , किसी के जीवन में रच जाती हैं.
लड़कियां खिल कर बाबुल के आँगन में,
किसी और का घर महकाती हैं.
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 21.8.10 9 comments
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शुक्रवार, अगस्त 20, 2010
मंजिल तक आकर कदम फिसलते देखा है
जीवन की सफर में लय से सुर को छूटते देखा है.
अक्सर लोगों को बन कर भी बिखरते देखा है,
एक छोटी सी भटकाव भी बदल देती है रास्ता.
मंजिल तक आकर कदम फिसलते देखा है.
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 20.8.10 2 comments
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हर चाह सिसक कर तब आह बन जाती है
"बदलती है किस्मत जो रूख अपना,
हर चाह सिसक कर तब आह बन जाती है,
वफा करके भी जब बेगैरत ज़िन्दगी से ,
ज़फ़ा की सौगात मिल जाती है. "
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 20.8.10 0 comments
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रु-ये -ज़िन्दगी उतनी हँसीं नहीं
ek urdu shayri zindaki ke bare me
रु-ये -ज़िन्दगी उतनी हँसीं नहीं, मालूम तब होता है जब दर्स दे जाती है,
दौरे-अय्याम जब सरशारी-ये -मंजिल से पहले नामुरादी जबीं पे सिकन लाती हैं.
रु-ये -ज़िन्दगी --- ज़िन्दगी का चेहरा
दर्स -- सबक
दौरे-अय्याम --समय का फेर
सरशारी-ये -मंजिल -- मंजिल की पहुँच
नामुरादी ------ असफलता
जबीं पे -- माथे पे
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 20.8.10 2 comments
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गुरुवार, अगस्त 19, 2010
छूट गया निगाहों का मिलकर मुस्कुराना,
छूट गया निगाहों का मिलकर मुस्कुराना,
आज जब भी भीगती हैं निगाहें तो हौले से मुस्काती हैं,
तेरे यादों का मेरी निगाहों से जाने कौन सा नाता है.
तस्वुर में जब भी आता है भीग कर भी मुस्कुराती हैं निगाहें.
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 19.8.10 0 comments
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शाम होते ही , बढ़ जाती हैं बेताबियाँ,
वो ढला दिन,
गया आफ़ताब ,
अब फिर तू ,
जलने की,
तैयारी कर ले ,
शाम होते ही ,
बढ़ जाती हैं बेताबियाँ,
अब तो हवाओं से,
तू यारी करले.
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 19.8.10 3 comments
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बुधवार, अगस्त 18, 2010
आज दामन थामने को तू जो नहीं
संभले कदम भी लड़खड़ाते थे डगर पे
,तुझसे सहारे की आदत जो थी,
अब चलती हूँ तो लड़खड़ाने से डरती हूँ,
आज दामन थामने को तू जो नहीं. "
Posted by डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) at 18.8.10 4 comments
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