शुक्रवार, मार्च 13, 2015

ग़ज़ल

 'द  सोहेल 'कोलकाता  की मासिक पत्रिका में छपी मेरी ग़ज़ल

और कितने आसमान चाहिए उसअत के लिए
ज़मीं  कम पड़ने  लगी    है    राहत  के   लिए

  कीदोस्ती   का   एक   पौधा  लगा दें
बहुत  वक़्त  पड़ा    है  अदावत    के     लिए

हर  सु  है   गिराँबारी   का   आलम अल्लाह
वक़्त माकूल   सा  लगत  है बगावत के लिए

कई  पेच - व्- ख़म    बाक़ी     हैं   ज़ीस्त  के
साज़ - वो - नगमा उठा  रखो  फुर्सत के लिए 

लफ़्ज़ों   में बयाँ  कर      सकूंगी   जज़बात 
हौसले  दिल में  हैं उर्दू   की अज़मत  के लिए

बस  इक किरण  उजाले  की  ज़माने  को  दूँ
है ग़ज़ल "रजनी " दुनिया की मुसर्रत के लिए

उसअत -   फैलाव
अदावत -   दुश्मंनी
गिराँबारीमहंगाई
ज़ीस्त -     ज़िन्दगी
अजमतमहत्व
मुसर्रत  -  खुशी

" रजनी मल्होत्रा नैय्यर " 
 (बोकारो थर्मल )