भावना से हो गया बंजर आदमी,
फिरता है लिए हाथों में खंजर आदमी |
वैर की अग्न से सूखा, प्रेम की नदी को,
बन बैठा विष भरा समंदर आदमी,
देख कर दूसरे की शांति अमन को ,
सुलग रहा अंदर ही अंदर आदमी
गैर भी थे अपने, ऐसा चलन था
रहता था मस्त कलंदर आदमी
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
फिरता है लिए हाथों में खंजर आदमी |
वैर की अग्न से सूखा, प्रेम की नदी को,
बन बैठा विष भरा समंदर आदमी,
देख कर दूसरे की शांति अमन को ,
सुलग रहा अंदर ही अंदर आदमी
गैर भी थे अपने, ऐसा चलन था
रहता था मस्त कलंदर आदमी
"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
5 comments:
बहुत सुंदर |
लाजबाब बेहतरीन गजल ,,,
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बहुत ही बेहतरीन गज़ल की प्रस्तुतीकरण,आभार.
Aabhari hun aap sabhi ki........
waah..bahut khoob..sabhi sher umda hain...achhi gazal
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