सोमवार, अगस्त 29, 2011

आओ मिलकर क्यों ना तुम सागर हो जाओ,

ये अंश लिखने से पहले मन में बहुत से ख्यालात आये नारियों की आज
भी सामाजिक सिथित दयनीय देख कर मन कुंठा से भर गया जब कुछ नारियों के
मुंह से सुनी उनकी व्यथा तो सारा आक्रोश उन्ही पर आता है क्योंकि ख़ुद वो
कहती हैं हम क्या करें औरत जो ठहरे ..........

...

शीर्षक   " आओ मिलकर क्यों ना तुम सागर हो जाओ "

नारी की त्याग, शील, और ममता ने नारी को एक ऊँचा स्थान दिया ,जिसे
मनीषियों ने कवियों ने अपने अपने शब्दों में कहीं  सराहा और उसे कहीं
देवों  सा स्थान दिया , तो कहीं उसके आंसुओं  को , बेबसी को उसकी कमजोरी
समझ कर लाचार  अबला नारी तक की संज्ञा दे दी |
." यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता " .   "नारी तेरी यही
कहानी...छाती में है दूध आँखों में है पानी " .....कभी  " नारी तुम केवल
श्रद्धा हो "क्या किसी भी कवियों ने लिखी  उसकी मानसिक पीड़ा को |
 बार बार त्यागमयी, सहनशील  और शांत कह कह कर नारी की शक्ति को कमजोर
किया जाता रहा है, वो त्यागमयी है क्योंकि वो अपनों की खुशियों में लूट
कर भी विजेता है. वो सहनशील है क्योंकि धरा की तरह है,  शांत  रह कर वो
कई कलह को विष की तरह पी जाती है .बेकार का बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहती,
घर की सुख शांति के लिए वो शांत रह जाती है क्योंकि वो पुरुषों से ज्यादा
विवेकशील है, पर इन्ही गुणों को  कतिपय  लोग    कतिपय   कारणों से नारी
की शक्ति को कमजोर समझने लगे और समाज में नारी का स्थान धीर धीरे कुचलते
हुए पूरी तरह दमित करने का प्रयास करने लगे जिससे समाज में हर गलत
,वाहियात और जितने भी पाबंदियों वाले नियम कानून समाज ने बनाये वो लागू
हो गए नारी पर | जब नारियों ने बार बार हो रहे अत्याचार पर विरोध कर
विद्रोह अपनाने शुरू किये तो समाज के ठेकेदारों ने उन्हें लज्जित करना
शुरू कर दिया . और कितनो ने तो घिनौनी हरकत की अंतिम सीमा भी पार कर दी |
शुरुआती  दौर पर कुछ कम ही नारियों में ये साहस था की वो समाज के इस गलत
नियम के विरुद्ध आवाज उठाये ,पर जिन्होंने कोशिश की उन्हें कठिन तौर पर
मानसिक पीड़ा भी झेलनी पड़ी , अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को वो गलत जानकार
भी चुपचाप अपना भाग्य समझकर सहती आई है | यहीं  पर उसने पहली गलती की
क्योंकि  अत्याचार करनेवाले की तरह अत्याचार सहनेवाला भी दोषी है |

" यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता " .   "नारी तेरी यही
कहानी...छाती में है दूध आँखों में है पानी " .....कभी  " नारी तुम केवल
श्रद्धा हो "
ये सारे प्रसंग केवल नारी को उपरी संतोष देते हैं उसकी मानसिक पीड़ा को
क्या किसी भी कवियों ने लिखी मनीषियों ने सोंचा भी ना होगा जिस नारी की
जिस शक्ति की  वो गुणगान कर रहे  हैं , एक दिन उन्हें जिन्दा जलाया जायगा
, कभी सती होने के नाम पर , कभी दहेज़ के नाम पर ,कभी पैदा होने से पहले
ही मार कर |


 जब अर्धागिनी का मतलब ही  होता है आधा, आधा.
कर्मो में,अधिकारों में क्यों  नारी को कम मिले पुरुषों को  ज्यादा.
वो सारे झूठे बंधन के डोर को ,तोड़ने पर हो जाओ तुम  आमादा,
 "रजनी नैय्यर मल्होत्रा  "


वो कोमल है फूलों  के जैसे, वो चंचल है नदियों के जैसे , सहनशील है  धरा
के जैसे ,वो भोली है मूरत के जैसे,  शांत है समुद्र के जैसे , समुद्र में
लहरों के आने से तूफान का खतरा होता है. जिस दिन ये अहसास हो जायेगा
विश्व की हर  नारी को अपना अधिकार और सम्मान मांगना नहीं होगा वो ख़ुद पा
लेगी ,

" आओ मिलकर क्यों ना तुम सागर हो जाओ ,
 कब तक बहती रहोगी नदी नालो की तरह. " रजनी  नैय्यर मल्होत्रा


मरहम की जरुरत नहीं पड़ती जहाँ एक सी पीड़ा हो,
भर जाता है वो ज़ख्म बस छू जाने से  "रजनी नैय्यर मल्होत्रा  "

हर स्त्री के लिए  एक बात कहना चाहूंगी अपनी हक़ के लिए तुम भी जाग जाओ,
कुछ सीख लो देख चींटियों की कतारों से ....

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "
बोकारो थर्मल  झारखण्ड "








गुरुवार, अगस्त 18, 2011

ये , रौशनी और दीया सलाई

   स्वास्थ्य खराब रहा ,  काफी दिनों बाद ब्लॉग  पर आई हूँ आपसभी के रचनाओं  से वंचित  रही .......... 


ये रौशनी , और  दीया  सलाई ,
सब मिलकर भी नहीं मिटा पाते हैं ,
अंतस के अंधकार को ,
अंतस  के बंद कमरों को ,
रोशन करने के लिए ,
नहीं पहुँच पाते चाह कर भी बाहरी उजाले ,
घेर रखी है एक चहारदीवारी सी ,
जिसमे झाँकने का एक झरोका भी नहीं ,
दरवाजे तो होते हैं पर बुलंद ,
जो खुलते हैं सिर्फ मन के दस्तक देने से ,
बाहरी रौशनी की छुअन या आघात,
नहीं हिला पाती है अंतस के दीवार को , 
किवाड़ को,
और  जरुरत ही  क्या है ?
दीया सलाई की.
अंतस के कमरे तो ख़ुद ही चेतना के जागने से ,
जल उठते हैं ,
और मन
नहा उठता है ,
रौशनी की जगमगाहट से .