सोमवार, मई 24, 2010

ये बंदिशें भी कैसी हैं

"ये बंदिशें भी कैसी हैं ,
कभी जुड़तीं हैं,
रस्मों के नाम से,
तो  कभी ,
बगावत से टूट जाती हैं,
ये  एक  ऐसी माला  है,
जिसके मनके की डोरी ,
खुद ,
गुन्धनेवाले  के हाथों ,
टूट  जाती है."

11 comments:

राजकुमार सोनी ने कहा…

चूंकि आप बहुत गहरा लिखती है इसलिए मेरे दिमाग का ब्लब थोड़ी देर से जलता है लेकिन आज समय पर जल गया। बहुत ही अच्छा लिखा है आपने। आपको बधाई।

प्रसून दीक्षित 'अंकुर' ने कहा…

अत्यंत सुन्दर रचना आंटी जी !
किन्तु आपसे एक निवेदन है कृपया अपनी Blog Template बदल लें ! तो आपके ब्लॉग की लिखावट की खूबसूरती में चार-चाँद लग जायेंगे !

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

वाह क्षणिका सरीखी सुन्दर, सार्थक कविता. बधाई.

Jandunia ने कहा…

अच्छा लगा

संजय पाराशर ने कहा…

jeevan ka nichod samne rakh diya.

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

संजय भास्‍कर ने कहा…

अच्छी लगी आपकी कवितायें - सुंदर, सटीक और सधी हुई।

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

blog par work chal raha, asuvidha ke liye khed hai.

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

mere dimag ka bulb bhi jal gaya Rajneee jee, time pe........sach me........bahut gahree baaten aap likhte ho........god bless!!

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

hardik sukriya mukesh ji

सुमन कुमार ने कहा…

वह तितली

उड़ने की कोशिश में,
नाकामयाव......
उसकी पंखो को,
कुतर दी गई है,
बंदिस रूपी खंजर से.
चाहती थी वह,
उड़ना.....
अनंत तक
चहकना.....
अरमानो के मुडेर पर,
फुदकना.....
दिल की आँगन में.
स्वर्ण पिंजरा को छोड़कर,
उड़ने के लिए
खुले आकाश में.
चाहत की दरवाजे को,
पार कर जाना चाहती थी,
वह तितली.