स्वास्थ्य खराब रहा , काफी दिनों बाद ब्लॉग पर आई हूँ आपसभी के रचनाओं से वंचित रही ..........
ये रौशनी , और दीया सलाई ,
सब मिलकर भी नहीं मिटा पाते हैं ,
अंतस के अंधकार को ,
अंतस के बंद कमरों को ,
रोशन करने के लिए ,
नहीं पहुँच पाते चाह कर भी बाहरी उजाले ,
घेर रखी है एक चहारदीवारी सी ,
जिसमे झाँकने का एक झरोका भी नहीं ,
दरवाजे तो होते हैं पर बुलंद ,
जो खुलते हैं सिर्फ मन के दस्तक देने से ,
बाहरी रौशनी की छुअन या आघात,
नहीं हिला पाती है अंतस के दीवार को ,
किवाड़ को,और जरुरत ही क्या है ?
दीया सलाई की.
अंतस के कमरे तो ख़ुद ही चेतना के जागने से ,
जल उठते हैं ,
और मन
नहा उठता है ,
रौशनी की जगमगाहट से .