गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

"वो बुरी औरत" अगली कड़ी ..

...........
ये सिर्फ एक कहानी अथवा  लेख ही  नहीं भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई है
. यहाँ सदियों से  नारी को बंधन में रखा गया उस  पर  अनेकों बंदिशें
लगायी लगी.पुरातन काल से ही नारी को एक उपभोग की वस्तु मात्र माना जाता
रहा . जिसकी योग्यता बस इतनी मानी जाती थी पति की सेवा हर तरह से करना ,
परिवार के सदस्यों की देखभाल करना घर की जिम्मेवारियां निभाना,व् संतान
उत्पति करना ...पर घर के किसी महत्वपूर्ण फैसलों पर उसका कोई हस्तक्षेप
नहीं स्वीकारा जाता था, फैसला करना तो दूर की बात उसे इन तरह के मामलों
से तटस्थ ही रखा जाता था . और धीरे धीरे पुरुष प्रधान समाज में नारियों
के लिए परम्परा निर्वाह हेतु एक  परम्परा की तरह  ये सारे बंधन फतवे की
तरह जारी हो गए .परन्तु सवतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश की नारियों
की स्थितियां सुधरने लगी नारी शिक्षा पर बल दिया गया,स्त्रियाँ जागरूक
होने लगी अपने अधिकारों के मामले में ,उन्हें भी शिक्षित होने का गौरव
प्राप्त होने लगा ,पर जो नहीं शिक्षित हो पाई वो अपने बेटियों को बेटों
की तरह शिक्षा दिलाने लगी .शिक्षा सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, वह  मनुष्य
के मानसिकता को भी प्रभावित करती है . जैसा ज्ञान मिलेगा हमारा मस्तिष्क
भी वैसा ही सोंचेगा. अन्तत स्वतन्त्रता के बाद धीरे धीरे नारियों के बंधन
के सारे रास्ते खुलने लगे ,वो पहले से ज्यादा खुला वातावरण में पोषित
परिवेश  पाने लगी . बचपन से यौवन तक की दहलीज तो आराम से काटती है नारी
जबतक वो बाबुल के आँगन में रहती है ,परन्तु विवाह के बाद उसके जीने का
ढर्रा ही बदल जाता है हर किसी के साथ ये बंधन लागु नहीं होता  हो ,पर आज
भी अधिकांश नारियां बंधन में हैं .विवाह के बाद आये बदलाव में उसके पहनने
ओढने से लेकर ,हर रीति रिवाज परम्परा के नाम पर एक हंसती  खेलती जीवन के
अल्हड कंधे पर डाल दिया जाता है दुनिया भर के परम्परा रीति रिवाज
दुनियादारी का बोझ .एक नए रिश्ते  में बंध कर लड़की कितने ही रिश्तों में
बंध जाती है ,फिर हर रिश्तो  में कभी हंस कर कभी रो कर अपने बंधे होने का
वो ब्याज चुकाती है ....... जिस लड़की को मायके के माहौल सा मनचाहा ससुराल
का भी माहौल मिले उसे किस्मत की धनी कहा जाता है .जिसे सारे (ससुराल के )
सदस्य उस नयी लड़की को अपने रंग में ढाल लेते हैं या यों कहें नयी माहौल
में उस लड़की को कोई परेशानी नहीं होने देते व्यवस्थित होने देने में उसपर
कोई जुल्म नहीं होता ,यहाँ जुल्म की बात मै दो अर्थों में कर रही . "एक
होता है शारीरिक यातना" एक मानसिक यातना " जिसे व्यंग्य वाणों से काफी
लोग छोड़ते हैं ,कहते हैं तन के घाव उतने चोट नहीं करते  जितने गम्भीर चोट
मन के घाव करते हैं
अक्सर देखा जाता है एक स्त्री जब सास का ओहदा पा जाती है उसके मन में एक
क्रूर शासक का जन्म हो जाता है जो सारी जीवन अपनी बहु रूपी अपराधी पर
जुल्म करना न्याय समझती है अपने सास होने के नाते. पर ये बात वो यहाँ भूल
जाती है ,कि जब वो भी इस मोड़ पर थी उसे भी कितने समझौतों व् परेसानियों
से गुजरना पड़ा होगा अपनी जिम्मेवारियां निभाने में जब वो बहू कि भूमिका
निभा रही थी.  उससे भी कई त्रुटियाँ हुई होंगी . पर नहीं हो पाता बहुत सी
नारिया अपनी पिछली जीवन को भूल जाती हैं ,और लगती हैं बहू कि कमियां
निकालने और सबके सामने उसकी गलतियाँ गिनाने.  या तानो में या दो चार
सहेलियों , पड़ोसनो के बीच  बता कर बहू कि कमियों को . क्या ये जो अपनी
बहू के लिए करती हैं द्वेष का भाव क्या अपनी बेटी के लिए भी ऐसी विचार
रखती हैं ,??  शायद नहीं अपनी बेटी के लिए तो हर कोई घर परिवार ऐसा
मांगता है जो बेटी को पलकों पर बिठा कर रखें उसे कोई भी तकलीफ ना दे...
कोई ही ऐसी सास होती होगी जो अपनी बहू को भी बेटी के समान प्यार देती हो
. और घर के सदस्यों से भी ऐसा ही व्यवहार करने को कहती हो ...यदि आप किसी
की कमियों को चार लोगों के सामने ना ज़ाहिर  कर या उसे तानो की बौछार ना
कर उसे अकेले में समझा दें की तुमसे ये गलती हुई है आगे से ध्यान रखना
तो क्या उस इन्सान की नजरो में  आपकी इज्जत नहीं बढ़ जाएगी ? जरुर हो सकता
है ये जब आपकी बातों पर सामनेवाला अपना ध्यान लायेगा और निष्कर्ष में मन
से स्वीकार भी कर आकलन करेगा कि, मेरी कमियों पर तिल का ताड़ ना बना कर
,मुझे अकेले में बता कर लोगो की नजरो में मेरा मजाक बनने से मुझे बचा
लिया. ना आपका स्वाभिमान आहत हो ना सामनेवाले का .....ये हो सकता है यदि
ये समझ में आ जाये कि कोई भी पौधा किसी भी जगह से उखड़ कर किसी अन्य नयी
जगह पर लगने में उस जलवायु में लगने और पोषित होने में थोड़ा समय लेता है
,यदि दोनों जगह कि मिटटी एक सी रही तो वो आसानी से पनप जाता है,पर यदि
मिटटी में अथवा जलवायु में अंतर रहा तो पनपने में थोड़ा समय अवश्य लेगा ,
ऐसे में माली को थोड़ा सा मेहनत के साथ धैर्य करना चाहिए .ये पौधा खिलकर
माली का मान अवश्य बढ़ाएगा .यही बात निर्भर करता है कई वर्षों तक एक
परिवेश में रह रही लड़की का नयी परिवेश में आना बहू बन कर ,यहाँ सास को
माली कि तरह बन जाना चाहिए जिससे घर गृहस्थी कि गाड़ी आराम से चल सके ,पर
समझदारी कि कमियों कि वजह से कई घर बिखर जाते हैं, बहुत सी ऐसी बहुएँ हैं
जिनका या तो शोषण होता है या वो ज्यादतियां सहते सहते विद्रोह पर उतर
जाती है जब उसके सब्र का बांध  टूट जाता है. इन परिस्थितियों में एक
अच्छा खासा रिश्ता बिगड़ जाता है उसमे कडवाहट के फल लग जाते हैं ये कहानी
भी कुछ इसी तरह है .......

पढ़े "वो बुरी औरत "के  आगे के अंक में ..........