गुरुवार, मई 06, 2010

हम जहाँ खड़े थे वहीं खड़े रह जाते हैं,

जब जब सावन कि बूंदें कुछ,
टप,टप राग सुनाती हैं,
जब , जब कोयल   ,
अपनी ही राग गाती हैं,
हाँ कुछ,कुछ पल बीते लम्हों के,
मुझे भी सताते  है,
ये जब गुजरते हैं रुत के संग ,
मुझे भी कुछ याद दिलाती है,

बैठे अपने आंगन में ,
जब भ्रमरों का गुंजन सुनते है,
तब मन ही मन हम,
लाखों सपने अपने धुन में बुनते हैं,
कभी कभी तो नयन हमारे
 मूक दर्शक से रह जाते हैं,

जब टूट जाए सागर के बाँध तो
कमल को मेरे भिंगाते है,
खगों के कलरवों में गूंजती ,
मेरे भी अग्न बुझ जाते है,
जब हम भी अपनी अरमानों के संग
ऊँची उड़ान भर आते हैं,

कभी तितलियों के साथ
अपनी सांग लड़ते हैं,
कभी शबनम सा
खुद को ओझल पाते है,
पर कल्पनाओं का क्या,
कल्पना में तो हम
सारा ख्वाब पा जाते हैं,

जब टूटती है मेरी तन्द्रा,
तो खुद को वहीं बड़ी बेबस सा पाते है,
हम जहाँ खड़े थे वहीं खड़े रह जाते हैं,
कभी,कभी तो फूटकर,
फूटकर भाव विह्वल हो जाते है,
बस ये सोंचकर रह जाते हैं,
हम जहाँ थे क्यों वही पर रह जाते हैं,

जब जब सावन कि बूंदें ,
कुछ टप,टप राग सुनाती हैं,
जब कोयल कि कूक,
अपनी ही राग गाती हैं,
 हाँ कुछ,कुछ पल बीते लम्हों के
मुझे भी सताती है.


"रजनी ".