सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

जब पास हों तो कीमत खो जाती है

कुछ उलझन भरे मन के सवाल से उभरी है ये नज़म ........

मेरी आवाज़ की गूंज मुझसे ही उठती है,
मुझसे ही टकरा कर खो जाती है.

जागती है तकदीर जब हम सोते हैं,
आँखें खुलते ही तकदीर सो जाती है.

हम चलते हैं जब भटकन की राहों में ,
तब कदम भी देते हैं साथ,
जब आने लगे मंजिल तो राहें खो जाती हैं.

क्यों होता है कुछ खोने के बाद ही पाने का अहसाह ?
जब पास हों तो कीमत खो जाती है.

जब मिलते हैं दर दर की ठोकरें कदम को,
तो हर सीधा रास्ता भी अनजाना लगता है.

मेरी आवाज़ की गूंज मुझसे ही उठती है,
मुझसे ही टकरा कर खो जाती है.