गुरुवार, फ़रवरी 17, 2022

ग़ज़ल

 एक ग़ज़ल हाज़िर कर रही 🙏😊


आएगा  इंकलाब    रहने   दे

है   वहम ये   जनाब रहने   दे


ये  ज़रूरी  नहीं  कि  झूठे  हों

इन निगाहों में ख़्वाब  रहने  दे 


ख़ुद को यूँ बेहिजाब मत करना

रुख़  पे  थोड़ा  हिज़ाब रहने  दे


अपना दामन बचा  के रहना है

है   ज़माना    ख़राब   रहने   दे


अपनी साँसों में लम्स की खुशबू

फूल    जैसे     गुलाब   रहने   दे 


नाज़ किस शय पे हो यहाँ "रजनी"

साँस    भी   है   हबाब   रहने   दे 


इंकलाब-- परिवर्तन, क्रांति

हबाब -  पानी का बुलबुला

हिज़ाब-- पर्दा,लज्जा, शर्म

लम्स--    छूवन

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"डॉ. रजनी मल्होत्रा नैय्यर"

   बोकारो थर्मल झारखंड

2 comments:

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (१८-०२ -२०२२ ) को
'भाग्य'(चर्चा अंक-४३४४)
पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

Jyoti khare ने कहा…

वर्तमान समय के सच को बयां करती
प्रभावी और सुंदर गज़ल
बधाई