गुरुवार, फ़रवरी 16, 2012

टूटी कश्ती थी, मझधार में चल रही थी

टूटी हुई कश्ती थी मझधार में चल रही थी 
कभी   डूब रही  थी    कभी संभल रही  थी

वक़्त की  मुट्ठी में  थी   तकदीर   मेरी  
कभी बिखर रही थी कभी बदल रही थी

हिकायत -ये माज़ी में   डूबे   चश्म- तर
आंसुओं की बारिश में  भी जल रही  थी

अमा निशा की ख़ामोश फिज़ा थी, "रजनी"
ख़्वाब था हक़ीकत सा और मै बहल रही थी

10 comments:

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

फिर क्या हुआ??

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत ही बढ़िया।

सादर

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत खूब!

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

har baar ki tarah ek aur shandaar rachnaaaaaaaaaa

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत खूब ...

vidya ने कहा…

ख्वाब था हकीकत सा..मैं बहल रही थी...

बहुत खूबसूरत रचना...

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

वाह
बहुत ही सुन्दर भाव रचना:-)

संजय भास्‍कर ने कहा…

कविता की प्रत्येक पंक्ति में अत्यंत सुंदर भाव हैं.

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) ने कहा…

Aap sabhi ko mera haidik sukriya rachna ko pasand aur protsahit karne ke liye.......

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत खूब .. मतलब तो दिल के बहलने से है .. लाजवाब ...